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१३६ । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ हैं। किन्तु मसार मे रह करके भी जीवन मे माधुत्व की सुन्दर प्रवृत्नियाँ तो चालू कर सकते है । ताकि आम-पास वाले सभी उनका अनुकरण कर सके । मरने पर भी दुनियां उन्ही क गीत गाती रहे ।
खिदमत करूं मै सबफी खिदमत गुजार बनकर ।
दुश्मन के भी न खटकू आंखो मे सार वनकर ।। व्यावर निवासी सेठ कालूराम जी कोठारी का जब स्वर्गवास हुआ तव एक मुसलमान मुहफाड कर रोने लगा।
उससे पूछा-तू क्यो रो रहा है ? वह वोला-आज मेरे वाप मर गये हैं । अव मेरा क्या होगा? अरे । वह जैन और तू मुसलमान । फिर तेरे वाप कैसे हुए ?
उसने कहा-एकदा मेरे शरीर पर लकवे का असर हुआ तो मेरी घरवाली मुझे छोडकर नाते चली गई। मैं अपने घर पर रो रहा था, इधर से सेठ जी निकले । रोते हुए मुझे देखा तो मेरे पाम आए, और मैंने आप वीती सारी बात कह सुनाई। तब उन्होने मुझे मास खाने का त्याग करवाकर और आटे दाल का मेरे मिल प्रवन्ध किया । वे अब नही रहे सो मेरा क्या होगा? इसलिए मैं उनके अमृतमय जीवन को याद कर रहा हूँ। इसीलिए कहा भी है
ओ जीनेवाले जीना है तो जीवन मधुर वनाया कर।
तन से मन से अरु वाणी से अमृत का फण वरसाया कर ।। __ अब जो मुमुक्षु ससारी प्रवृत्तियो से उदासीन रहना चाहते हैं उनके लिए आगम वाणी मे इस प्रकार मागदर्शन दिया है -
जहा पोम जले जाय नोवलिप्पई वारिणा । एव अलित्त काहि त वय वूम माहण ॥
-भगवान् महावीर हे मुमुक्षु । जैसे कमल जल मे उत्पन्न होता है, पर जल से सदा अलिप्त रहता है, इसी तरह । काम भोगो मे उत्पन्न होने पर भी विपय वामना सेवन से जो दूर रहता है, वह किसी भी जाति व कीम का क्यो न हो, मैं उमी को महान् मानता हूँ।
जिसको गीता मे अनामक्तियोग कहा जाता है और जैन दर्शन की परिभापा में अमूर्छा भाव अथवा अगृद्धभाव कहते हैं। इस प्रकार ससार-स्थली मे रहकर मुमुक्षु जीव अपनी मर्यादा के अनुमार म्व-पर के लिए भले कोई भी उचित कार्य करे, उनके लिए मुक्ति दूर नहीं । क्योकि—जिसने मातृकुक्षि में जन्मधारण किया उनका प्रथम कर्तव्य है कि वे न्याय नम्रता पूर्वक अपने बडे बुजुर्गों का पालन-पोपण करे, समाज एव राष्ट्र के प्रति पूरा-पूरा वफादार रहे, एव अडोसी-पडोसी की भलाई करते हुए प्राणी मात्र के साथ माधुर्य से पूर्ण मिप्ट और इण्ट व्यवहार करें। चूकि जितने उत्तरदायित्व उन पर लदे हुए हैं । उत्तरदायित्व से मुंह मोडना मानो जीवन की भारी पराजय है ।
अतएव सव की ओर देख भाल करना तो ठीक है किन्तु उनमे उलझ जाना, व्यामोहित हो जाना, कर्तव्य से पतित हो जाना अर्थात् जर, जोल, और जमीन को ही सर्वस्व जीवन का आधार मानकर गद हो जाना, जीवन के लिए एक खतरनाक चुनौती है।