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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सहयोग धर्म | १४१ महानुभूति पापाणवत् कठोर मन मस्तिष्क को बदल सकती है-इस कारण जीवन मे उपदेश को अवश्यमेव कार्यान्वित करे-जैसा कि म० महावीर ने कहा
___'असगिहीय परिजणस्स सगिण्हणयाए गिलाणस्स अगिलाणए वेयाच्चकरणयाए अन्भुठेयत्व भवइ ।"
-स्थानाग सूत्र ८ जो असहाय एव अनाश्रित है उन्हें सहयोग एव आश्रय देने मे, तथा जो रोगी है उनकी परिचर्या करने मे सदा तत्पर रहना चाहिए ।
अन्न कृतांग सूत्र मे श्री कृष्ण वासुदेव सम्बन्धित बहुत ही हृदयस्पर्शी प्रसग आपने कईबार सुना होगा। श्रीकृष्ण वासुदेव हजारो सामन्तो के साथ भगवान श्री अरिष्ठनेमि के दर्शनो के लिए जा रहे थे। मार्गवति एक वृद्ध ई टो के ढेर मे से एक-एक ईट उठाकर मकान के अन्दर रख रहा है । ढेर काफी बडा था। दयनीय दृश्य देखकर वासुदेव का हृदय द्रवित हो उठी तत्क्षण मानवी कर्त्तव्य समझ कर सहयोग करने मे तत्पर हो गये । "राजानमनुवर्तन्ते यथाराजा तथा प्रजा" तदनुसार माथवालो ने भी वैसा ही अनुकरण किया । वात की वात मे सारा ढेर अन्दर पहुँच गया । वहुत बडा कार्य हजारो-हजार हाथ मिलने से कुछ ही क्षणो मे पूर्ण हो गया । उस वृद्ध के अन्तरात्मा के तार झकृत हो उठे।
महापुरुष ही दुनियां में दुखियो के दु ख को हरते हैं । अपना कार्य बने न बने पर अन्य का कार्य वे करते हैं ।।
सहयोग धर्म का व्यापक स्वरूप मयोग धर्म मे शून्य जीवन इस धवल धरा पर धिक्कार का पात्र माना है। वह जीवन पशु से वया पाषाण से भी गया वीता माना है। यदि देहधारी के जीवन मे पारस्परिक सहयोग की आकाक्षा, प्राय मृत सी हो गई है तो एक पत्थर मे और उस चलते-फिरते पुतले मे क्या अन्तर है ? पत्थर के टुकडे को आप तोडेंगे-फोडेंगे तो समीप पडे हुए दूसरे पापाण मे आत्मीयता को कोई प्रतिध्वनि नही होगी । अपमान एव सवेदना की स्फुरणा नहीं होगी, किंतु दुखी-दर्दी प्राणो की चित्कार को सुनकर देह धारी की आत्मा चीख उठेगी। उसके दिल मे वष्ट निवारण की हलचल अवश्य हिलोरे मारने लगेगी। सुरक्षा सहयोग की अनेकानेक अनुभूतियां स्वत उभर उठेगी । यदि स्फूरणा नही हुई है तो ऐमा मानना पडेगा कि अभी तक उसने निज कर्त्तव्यो को पहिचाना नही, परखा नही, कहा भी है
अगर तेरे दिल मे दयाभाव ही नहीं,
समझ ले तुझे दिल मिला ही नहीं। वह मुर्दे से भी बदतर है जो सुख न किसी को देता है।
लोहारो को धोकनी सदृश बेकार सास वो लेता है ।। जैन दर्शन में ही नही, अपितु वैदिक एव बौद्धदर्शन मे भी रत्नत्रय का महात्म्य अच्छे ढग मे अभिव्यक्त किया है । सम्यक् दर्णन, ज्ञान, चारित्र ये रत्न भव्यात्माओ को लिए भारी सहायक हैं । रत्न अयपी महायता विना भव्यात्माओ को स्वकीय-परकीय एव हेय, जेय उपादेय का कुछ भी प्रबोध नहीं होता है । इनकी बदोलत नर से नारायण, मानव से महावीर और आत्मा से परमात्मा पदवी तक को प्राप्त करते हैं कहा है
नाणेण जाणई भावे दसणेण य सदहे । चरित्तेण निगिण्हाई तवेण परिसुज्झई ।।