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१४२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
___ वत्म | ज्ञान, दर्शन, चारित्र एव तप की सहायता से यह जीवात्मा भली प्रकार से जीवादि तत्वो को जानता है, यद्वता है । आगत कर्माश्रव को रोकता एव समस्त कर्मों का क्षय करने मे सफलता भी प्राप्त करना है । इस प्रकार गुरु की मदद बिना गोविन्द, और अरिहन्त की कृपा विना सिद्ध स्वरूप का सम्यक् जान कदापि नही होता है । इस तथ्यानुसार गोविन्द एव मिद्ध प्रभु की अपेक्षा, गुरु एव अरिहन्त प्रभु का माहात्म्य अधिक माना है क्योकि ये हमारे लिये परोपकारी है । जैसा कि कहा है
गुरु गोविन्द दोऊ खडे काके लागु पाय ।
बलिहारी गुरुदेव की गोविन्द दिया बताय ।। परम महायक का गुण गान करना सम्यक् दृष्टि को पहिचाना है। मम्यक्दृष्टि के शममम्वेग-निर्वेद-अनुकम्पा और आस्था, ये व्यावहारिक लक्षण माने गये हैं, इसमे अनुकम्पा चौथा लक्षण है । सह्योग रूपी सुधा-रस का सिंच न पाकर ही अनुकम्पा गुण समृद्धि विकास को प्राप्त करता है । धर्म रूपी वृक्ष परिपुष्ट होता हुमा जीवन मागर सदृश्य अवश्य विराट वनता है। स्नेह-सगठन एव समता के झरने अवश्य हो प्रस्फुटित हुए बिना नही रहते हैं । थोडे मे कहुँ तो सत्य शिव-मुन्दरम्, ये तीतो गुण महयोग धर्म मे समाविष्ट है । रोते हुए को हंमाना, गिरे को उठाना और अनाथ को नाथ के पद पर आसीन करना मह्योग धर्म का मगल कार्य है । सुनिये जीवन-स्पर्शी उदाहरण
साधारण वस्त्र पहिने हुए एक नन्ही वालिका थोडा दही लेकर आ रही थी। कुछ लोग सामने से गुजर रहे थे एक भाई उस वालिका से टकरा गया । विचारी का दही सडक पर बिखर गया । वर्तन भी फूट गया लडकी जोर-जोर से रोने लगी। आने जाने वालो ने उस बच्ची को चुप रहने का उपदेश दिया पर कोई सहयोग का हृदय लेकर नही आया । अन्त मे एक सज्जन पुरुप आया और बोलाबेटी | क्या हुआ, दही गिर गया ? अच्छा रोओ मत चुप हो जाओ और लो यह पैसे दही और वर्तन ले आओ । वैमा ही हुआ, वह लडको अपना सामान ले आई और प्रसन्न मुद्रा मे नाचती-कूदती अपने घर चली गई। कहा है
हाथ फैलाओ कि हम फैलायें हाथ हैं ।
साथ तुम हमे दो हम तुम्हारे साथ हैं ।। आप जरा गहराईपूर्वक सोचे, इजिन मे सैकडो मन वजन ले जाने को शक्ति है किंतु पटरी के अभाव मे ? मछली मे दौड लगाने की क्षमता है किंतु जलाभाव मे ? इसीप्रकार जीव और पुद्गलो मे गति करने की समता है किन्तु धर्मास्ति काय का महयोग नही रहा तो क्या इधर-उधर जा पाओगे ? टिचल नही । इनी तरह प्रत्येक द्रव्य पारस्परिक महयोगी है । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु जैसे कि नदी, नाले, झाड-पर्वत, निर्झर, रवि-राकेश, सभी जीव एव पुद्गलो के लिये मददगार है, अर्थात्-सहयोग धर्म से परिपूर्ण है।
यद्यपि समय काफी हो चुका है, मुझे आशा है कि-आप मेरे विचारो को अपने दिल-दिमाग से मोचेंगे व जीवन की पवित्र प्रयोग शाला मे कार्यान्वित भी करेंगे जब ऐमी आत्मिकस्फुरणा का अन्तर हृदय में उद्भव होगा तभो महयोग धर्म इसका महज स्वभाव बन जायगा। जब अपने समान दूसरो यो भी सुत्रसम्पन्न बनाने की आपसरी अन्तरात्मा मे उत्कण्ठा जागेगी वही उत्कण्ठा आपके भविष्य तो चमनायेगी-दमकायेगी एव मुख सम्पन्नता से भरेगी इतना कहकर मैं अपने वक्तव्य को विराम देता हूँ।