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१४० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य तक की कचन-कामिनी के पीछे कोर्ट-कचहरी की पेटियाँ नाप रहे हैं । एक दूसरे एक दूसरे को शत्रु मान रहें हैं । एक कुक्षी से जन्म लिया, एक थाल मे भोजन किया, और एक ही धूलि के कणो मे खेले, व फूले-फले वडे हुए हैं, आज उन्ही के साथ कोई महयोग नही । माधुर्य भरा व्यवहार नही, कितनी शोचनीय स्थिति वन चुकी है ? वास्तव मे मानव की बुद्धि का भले विकास हुआ हो किंतु मानव का हृदय दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है। मानवी व्यवहार पर दानवी वृत्तियां हावी हो रही है, फलस्वत्प आज सभी भयातुर हैं । इस अनिष्टकारी प्रवृत्ति के कारण लाखो-करोडो भारतीय नर-नारी पाश्चात्य मस्कृति के अनुयायी अर्थात् ईसाई वने और वनते जा रहे हैं । ऐसी दुखद घटना निश्चय मानिये आर्य सस्कृति के निये घातक एव वरदान नही अभिपाप सिद्ध हुई है । ऐसी गलतियाँ उनकी नहीं, हमारी हैं। हम लोगो ने परमार्थता, उदारता, विशालता, महयोग, महानुभूति एव अपनत्व-भ्रातृत्व को भुला दिया और प्रत्येक बात मे स्वार्थपना ले आये, इस कारण आये दिन हमे कटुफल भोगने पड़ रहे हैं ।
उपदेश को कार्यान्वित करें न० १८-२८ की बोधप्रद एक घटित घटना है, ववई के कुष्ठि दवाखाने में एक ईसाई मिशन कार्य कर रहा था । सैकडो हिन्दु और मुमलिम कुप्टि नर-नारी ईसाई बनते चले जा रहे थे। धर्म परिवर्तन की कहानी मरकार तक पहुँची । विधान सभा से पूछा गया कि क्या यह कुष्टि दवाखाना है या धर्म परिवर्तन की कार्यशाला ? उत्तर मिला कि वास्तव में धर्म परिवर्तन की प्रणाली मानव समाज के लिये अतिघातक है अतएव शीघ्रातिशीघ्र रोकथाम होनी चाहिए। प्रस्ताव स्वीकृत होते ही हिन्दु धर्म की सुरक्षा के लिये पडितो की और इस्लामधर्म की सुरक्षा के लिये मौलवियो की व्यवस्था की गई।
पडित पहुंचे, महाभारत, गीता का उपदेश देने लगे । यह ईश्वर का प्रकोप है। पूर्व जन्म के किये हुए अपने ही अशुभ कर्मों का फल है
अवश्यमेव भोक्तव्य कृत फर्म शुभाशुभम् ।
नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अर्थात्-कृतकों को अवश्यमेव भोगना ही पडेगा । विना भोगे कर्म विपाक मे कभी भी छुटकाग नहीं मिल सकता है भले कितना भी काल क्यो न वीत जाय, इस कारण आप शाति-पूर्वक सहन करते हुए धर्म का परित्याग न करें।
अव मोलवी कहढे लगे-अल्लाह की इबादत न भूले, खुदा की बन्दगी करें, वह तुम्हे सभी गुन्हा माफ करेगा। दवाई, इलाज की वात दूर नही किंतु कही रोग हमारे न लग जाय इस कारण ने किसी गेगी यो छुआ, न स्पर्ण किया और नहीं कोई महानुभूति सहयोग नावना प्रगट की, केवल धर्म की बान वह कर चलते बने ।
कुछ समय बाद ईनाई मेवक उपस्थित हुए जो अन्य के मन-मस्तिष्को को वात की बात में सन दे, उनये पाम उपदेश नही अन्तगत्मा के जादू भरे मृदुस्वर थे । उन गेगियो को सान्वना देते हुए, पावो तो धोने हए बिना ग्लानि किये मरहम पट्टी के साफ सुथरे वस्त्र पहनाये तत्पश्चात् पापिय देह पे लिये प्रति वर्धक ग्राद्य वन्नु खिलाते हुए नुमधुर वाणी का सुन्दर उपहार उन मरीजो फी समर्पित करते हैं । स्दन दुनियां उनकी बन गई । न गीता न कुरान का उपदेश उनके मन-मन्दिर
बदरकपा । यह निविवाद मत्य है कि टन और मण भर उपदेश की अपेक्षा क्षण गर का मयोग