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जीने की कला
गौतमकुलक नामक ग्रन्थ में लिखा है-"सव्वकला धम्मकला जिणेई" अर्थात् सर्व कलाओ मे धर्म-फलात्मक जीवन श्लाघनीय माना है । किन्तु आज विपरीत प्रवाह वह रहा है। जहां-तहाँ आज मानव समाज अनैतिक एव अधर्म साधनो के सहारे जीवन यापन करना चाहता है। प्रत्येक वर्ग की आज यही शोचनीय स्थिति परिलक्षित हो रही है। जहाँ स्वर्गीय सुखो का निर्माण करना था, जहां धर्म-सस्कृति सम्पदा से जीवन को सज्जित फरना था वहां गहराई से पर्यवेक्षण किया जाता है तो हमे विपरीत वातावरण दिखाई देता है । अतएव वर्तमान मे गुरु प्रवर का "जीने की कला" नामक प्रवचन इसलिए प्रवाहित हुआ है । प्रत्येक पाठक वर्ग के लिए पठनीय एव मननीय है।
–सम्पादक] प्यारे सज्जनो!
कलाओ का जीवन में महत्व ! आज के प्रवचन का विपय है-"जीने की कला" इस शीर्पक मे जीवन का बहुत बडा समाधान एव रहस्य छुपा हुआ है । विचित्रता से परिपूर्ण दृश्यमान एव अदृश्यमान ससार सचमुच ही नाट्यगृह का प्रतिनिधित्व प्रस्तुत करता है। इसकी आश्चर्यजनक लीला की सर्वोपरि ज्ञानानुभूति सवज्ञ के अतिरिक्त और किसी अल्पज को हुआ नहीं करती है। कारण यह कि-जगतीतल की परिधि असव्यात योजन में परिव्याप्त है जिसके अगाध अचल मे असख्यात तारे, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य-चन्द्र विस्तृत योजनो पर्यंत परिव्याप्त उल्का, पहाड, पर्वत, नदी-नाले, अगणित वृक्षावलियाँ एव देव-दानव-मानव-पशु-पक्षी सभी निवास करते हैं। विविध विपमता से भरे-पूरे ससार मे जीवन नैया सुरक्षित कैसे रहे ? जीवन उत्थान की राह कौनसी एव अपना समुचित सुन्दर सुकलामय जीवन कैसे बीताया जाय ? आदि-आदि ज्वलन प्रश्न आज के नही अनादि के हैं। कल के नहीं, पलपल विचारणीय एव अन्वेपणीय रहे है । ऐसे नो जनदर्शन एव इतर ग्रन्थी मे वहत्तर कलाओ का सागोपाग वर्णन देखने को मिलता है । जिनमे जीने की कला भी अपना अद्वितीय महत्व रखती है
कला वहत्तर सीखिये तामे दो सरदार
एक पेट आजीविका दूजी जन्म सुधार ।। जीना कैसे ? अर्थात् समार मे रहना कैसे ? आप मन-ही-मन विचारो मे डूब रहे होंगे कि क्या यह भी कोई प्रश्न है ? अवश्यमेव । जिन नर-नारियो को ससार रूपी घोसले मे रहना नही आया, अथवा रहने की कला मे जो मर्वथा अनभिज्ञ रहे हैं । ऐसे मानव आकृति से भले मानव के वशज हो परन्तु प्रकृति की अपेक्षा पशु पक्षी की श्रेणी मे माने जाते है । क्योकि धार्मिक जीवन के पहले व्यावहारिक और नैतिक जीवन जीया जाता है। तत्पश्चात् धार्मिक जीवन का श्री गणेश होता है। नीतिणतक मे भर्तृहरि ने कहा है