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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन : शुभकामनाए · वन्दनाजलिया | १२५
वंदनांजलि-पंचक
-श्री सुरेश मुनि जी म० 'प्रियदर्शी' सौम्य-आकृति गात प्रकृति महर्षि वर उदार है, महा-उपकारी करुणा धारी, भारी क्षमा भण्डार । सकल मनोरथ पूरक सुर तरु अभीष्ट के दातार है, प्रताप गुरु के चरण नमता मिटे कर्म की मार है ॥११॥
अमृतमय है वाणी, गुरु की जो सुने एक बार है, अघ-अधोगति दूर जावे पावे सुख अपार है। सन्मार्ग उसको शीघ्र मिलता न रुले ससार है,
प्रताप गुरु के चरण नमता मिटे कर्म की मार है ।।२।। सुन्दर शिक्षा स्नेह-सगठन की देते हर वार है, दूध मिश्री-सा मेल करन मे कुशल कलाकार है। शात मुद्रा से निर्मल निर्भर की वहती शीतल धार है, प्रताप गुरु के चरण नमता मिटे कर्म की मार है ॥३॥
हृदय जिनका शम-दम पूरित मधुर गिरा रस धार है, परहित साधक निरभिमानी भद्र प्रकृति के लाल है। श्रमण सघ के हित साधक तेरा अमल आचार है,
प्रताप गुरु के चरण नगता मिटे कर्म की मार है ॥४॥ छ काय के प्रतिपालक गुरुवर | आज मैं तुमको नमू, रत्न त्रय के आराधक स्वामी । आज मैं तुमको नमू। पालक-उद्धारक और तारक तू ही मम आधार है, प्रताप गुरु के चरण नमता मिटे कर्म की मार है ।।५।।