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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाएं वन्दनाञ्जलियाँ | १२३ सम्पदा मे फूले सदा, फिर भी वाद से दूर ।
नीर-नीरज न्यायवत् निर्लेप निर्मल पूर ।।१८।। शुद्ध साधना के धनी, विशद क्रिया सुज्ञान । पुण्याई बहु बढ रही, ज्यो, प्रभात का भान ।।१९।।
सुखमयी आचार पक्ष, विचार भी उत्तग ।
व्यवहार पवित्र है सदा, परम आप का ढग ॥२०॥ गणी गरु प्रताप का, प्रगटे पग-पग तूर । विद्या विनय विवेक से, 'रमेश' रहे भरपूर ।।२१।। वंदना हो स्वीकार...!
-रग मुनि जी महाराज मुक्ति मार्ग की साधना मे निशदिन सलग्न, प्रसन्न वदन मुनि नित्य रहे नही तनिक अभिमान, निर्वद्य सयम पालते ज्ञान ध्यान निर्विघ्न । तारण तिरण जहाज है शात-दात धृतिमान । पद विहार किया आपने फिरे हजारो कोस, लक्ष लक्ष तव चरण मे वन्दन हो स्वीकार, ममता तन की त्यागकर सहन किये कई रोष । जीवन दीर्घायु बनें “रगमुनि” उद्गार ।
गुरु-गुण गरिमा
-~-अभय मुनि जी महाराज (तर्ज-जय बोलो) जय बोलो प्रताप गुरु ज्ञानी की,
सम दम के शुभ ध्यानी की ।।टेर॥ गुरु 'देवगढ' मे जन्म लिया।
असार ससार को जाना है। गुरु ओसवश उज्ज्वल' किया।
त्याग वैराग्य शुभ माना है । पिता 'मोडीराम' गुण खानी की ॥१॥ सयमपथ के सुखदानी की ॥२॥ ये शात गुण रख वाले है।
दर्शन कर कलिमल धो डालो।। ये मधुर बोलने वाले हैं।
आज्ञा इनकी मन से पालो ।। बोलो रत्न त्रय के स्वाभिमानी की ॥३॥ इस प्रेमामृत भरी वाणी की ॥४॥
'देवगढ' मे चौमासा ठाया है।
तीन ठाणा सु यहाँ आया है। जय जय हुई जिनवाणी की ॥५॥
'अभयमुनि' गुण गाता है।
घर घर मे वरती साता है। शिव-मुख सूरत मस्तानी की ॥६॥