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१०२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
मुस्कान, जो वैराग्य भावो से ओत-प्रोत आदि आप के पार्थिव शरीर का वाह्य वैभव है। जो सचमुच ही आगन्तुक भव्यात्माओ को सहज मे ही प्रभावित करता है ।
महकता जीवन "उदार चरिताना तु वसुधैव कुटुम्बकम्' अर्थात् आप के लिये सारा ससार ही एक विराट परिवार है । यद्यपि सम्प्रदाय के बीच आप ने विकास पाया है । तथापि साम्प्रदायिक भावनाओ मे आप कोसो दूर रहे हैं । फलस्वरूप प्रत्येक मानव के प्रति आप का व्यवहार बहुत ही उदार और सुखप्रद रहा है । गुण ग्राहकता आप की निराली विशेषता रही है। चाहे वालक अथवा वृदृ हो, चाहे योगी हो या भोगी, परन्तु उनकी गुणज्ञता आप सहर्ष स्वीकार करते हैं। मिलनसार भी आप अपने ढग के अनोखे हैं । जहाँ भी आप के चरण कमल पहुँचते है वहाँ अपनत्व का मधुर वातावरण सर्जन करके ही लौटते है।
सेवा धर्म आप के जीवन का मूल मत्र है। इस पर जन्म-जात आप का अधिकार भी है। अनेक शिप्यो के होते हुए भी अद्यावधि आप उमी प्रकार सेवा कार्य मे दत्तचित्त है। आप द्वारा कृत सेवा से प्रसन्न होकर स्व० श्रद्धेय गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म. सा. सदैव अपनी सेवा मे ही रखते थे। इसी प्रकार जव जव स्थविर-वृद्ध मुनिवरो की सेवा-शुश्रूपा की आवश्यकता पडती थी तब आप की याद किये जाते थे । स्व० पूज्य श्री मन्नालाल जी म० सा०, तपस्वी श्री वालचद जी म. सा. वैराग्य मूर्ति मोतीलाल जी म० सा०, तपस्वी श्री छव्वालाल जी म. सा० एव स्व० उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी म० सा० आदि २ अनेकानेक महामना मनस्वियो की आप ने दिल खोल कर सेवा की है । तपस्वियो की सेवा-भक्ति करना सचमुच हो कटका कीर्ण माना है। फिर भी आप सेवा साधना मे सफल हुए हैं। अतएव अनुमान सही बताता है कि सेवा क्षेत्र में आप एक कुशल-कर्मठ योद्धा रहे है ।
चमकता सयम . "प्रज्ञाऽऽजश्वर्य क्षमा माध्यस्थ सपन्न सभापति"
-प्रमाणनयतत्वालोक उपयुक्त गुण आप के महकते जीवन मे परिपूर्ण पाये जाते हैं। तभी तो आप एक सफल एवं सवल अनुशासक eohtroller की श्रेणी मे गिने जाते हैं । Simple living and higthinking अर्थात सादा जीवन और उच्च विचार हमारे चरित्र नायक के जीवन का उच्चातिउच्च आदर्श है। आप के जीवन का एक-एक क्षण मर्यादा पालन मे वीता और वोत रहा है। आपके शासन मे न कटुता, न कठोरता, न कापट्य पूर्ण व्यवहार और न दीखावटी-दृश्य ही है जो अन्य अधिकारी शासको के शासन मे पनपते हैं । वस्तुत मरलता, ऋजुता, समता और करणी-कथनी मे समन्वयात्मक शासन आप का स्तुत्य सुशासन है।
कथनी करणी का सुमेल अन्तर और बाह्य एकता पर सत जीवन की सबसे वही विशेषता निर्भर है। जिसके मन मै वाणी मे दुसरापन और आचरण मे तीसरापन । वह वास्तविक सत नही हो सकता । जीभ और जीवन के बीच की खाई जितनी ही चौडी होती जायगी सतवृत्ति उतनी ही दूर होती जायगी । जीभ और जीवन की समानता मे सतवृत्ति पुष्पित पल्लवित होती है। सतवृत्ति के अनुरूप गुरु भगवत का महकता हुआ साधना मय जीवन एक वास्तविक जीवन रहा है । फलस्वरूप कई विद्वद् माधक शिप्य