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१०६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
ये भद्रवाहु चन्द्रगुप्त के गुरु थे। उनके समय मे एक वार वारह वर्ष व्यापी अकाल की सम्भावना दिनाई दो थी। उस समय एक वडे संघ के साथ वगाल को छोडकर दक्षिण चले गये और फिर वही रह गरे । वही उन्होंने देह त्यागी। दक्षिण का यह प्रसिद्ध जैन महातीर्थ श्रवण वेलगोल के नाम से प्रनित है । दुभिक्ष के समय में इतने बडे सघ को लेकर देश मे रहने ने गहन्थो पर बहुत वडा भार पडेगा । इमी विचार से भद्रबाहु ने देश परित्याग किया था।
भद्रबाहु की जन्म भूमि थी वगाल । यह कोई मनगटन्त कल्पना नहीं है, हरिसेन कृत वृहत् कथा मे इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। रत्ननन्दी गुजरात के निवासी थे। उन्होने भी भद्रवाहु के मम्बन्ध मे यही लिखा है। तत्कालीन वग देश का जो वर्णन रत्ननदी ने दिया है इसकी तुलना नही मिलती।
___ इन कथनानुमार भद्रबाहु का जन्म स्थान पुडवर्धन के अन्तर्गत कोटीवर्ष नाम का ग्राम था। ये दोनो स्थान आज (वगुडा) और दिनाजपुर जिलो मे पडते हैं। इन सब स्थानो मे जैन मत की कितनी प्रतिष्ठा हुई थी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वहा से राढ तामलुक तक सारा इलाका जैन धर्म से प्लावित था।
__उत्तर वग, पूर्ववग, मेदनीपुर, राढ और मानभूमि जिलो मे वहुत सी जैन मूर्तियां मिलती हैं। मानभूमि के अन्तर्गत पातकूप स्थान मे भी जैनमूर्तियां भी मिली हैं। सुन्दर वन के जगलो मे भी धरती के नीचे से कई मूर्तियां मग्रह की गई हैं । वाकुण्डा जिला की सराक जाति उस समय जैनश्रावक शब्द के द्वारा परिचित थी । इसप्रकार वगाल किसी समय जैन धर्म का एक प्रधान क्षेत्र था। जव वौद्ध धर्म आया तव उम युग के अनेको पडितो ने उसे जैन धर्म की शाखा के रूप मे ही ग्रहण किया था।
इन जैन साधुओ के अनेक मघ और गच्छ हैं। इन्हे हम माधक सम्प्रदाय या मण्डली कह सकते हैं । वगाल मे इस प्रकार की अनेक मण्डलियाँ थी । पुटवर्धन और कोटिवर्प एक दूसरे के निकट ही हैं किन्तु वहाँ भी पुण्ड्वर्धनीय और कोटिवर्षिया नाम की दो स्वतन्त्र शाखाएं प्रचलित थी। ताम्रलिप्ति मे तानलिप्नि नाम की शाखा का प्रचार था । इस प्रकार और भी बहुत शाखाएं पल्लवित हुई थी जिनके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि - वगाल जैनो की एक प्राचीन भूमि है । यही जैनो के प्रथम शास्त्र रचयिता भद्रवाहु का उदय हुआ था। यहां की धरती के नीचे अनेक जैन मूर्तियां छिपी हुई हैं और धरती के ऊपर अनेक जैन धर्मावलम्बी आज भी निवास करते हैं।
आज यदि दीर्घ काल के पश्चात् अनेक जैन गुरु बगाल मे पधारे हैं तो वे वस्तुत परदेश मे नही आये, वे हमारे ही है और हमारे ही वीच आये उन्हे हम वेगाना नहीं कह सकते । ये सव जैन साधु हमारे अग्रज है और हम श्रद्धा के साथ उनका अभिनन्दन करते हैं। हमारे इस स्वागत मे यदि कोई समारोह का अभाव जान पड़े तब भी उसके भीतर वडे भाई का मादर अभिनन्दन करने की भावना नि सन्देह छुपी हुई है । पदानित ऐसी एहिक घटना बहुत प्राचीन त्रेतायुग मे भी घटित हुई थी तब वनवास के बाद रामचन्द्र अयोध्या लौटकर आये थे और छोटे भाई भन्त ने भक्ति एव प्रीति सहित उनका स्वागत विया या । अपने जैन गुरजो का हम उमी भावना से अभिनन्दन कर रहे हैं।
आज थिया में श्री श्री १०८ श्री जैन मुनि श्री प्रतापमल जी म० श्री हीरालाल जी मः श्री जगजीवन जी म० नीर श्री जय तीलाल जी म. के नेतृत्व में जैन गुरुओ का जो समागम हो रहा है