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द्वितीय खण्ड . अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलियाँ . ११६ श्री प्रताप अभिनंदन पञ्चकम्
-मुनि महेन्द्र कुमार 'कमल' 'काव्यतीर्थ' 'साधुसघ वरिष्ठाश्च, प्रतापमलसज्ञका। मेवाडभूमि मूर्धन्या' द्वित्रा सन्ति महीतले ।।१।। तेपा विद्वद्वरेण्याना, साम्प्रत ह्यभिनन्दनम् । विधीयते च विद्वद्भि, श्रुत्वा मोमुद्यते मन ।।२।। नदलाल गुरु]पा, जैनागमविचक्षणाः । तपस्विन कथ नस्युस्तेषा शिष्या विशेपत ॥३॥ हिन्दी गुर्जर भाषाणा सस्कृत प्राकृतस्य च । काव्य लेखन मर्मज्ञा. मुनिश्री धरणीतले ॥४॥ मेवाड भूपणश्चायं, धर्म व्याख्यानकृद् मुनि । विचरन् ससुख लोके, जीव्याह्न शरद. गतम् ॥५॥
श्रद्धा के कुछ फूल
-मुनि श्री कीर्तिचन्द्र जी महाराज "यश" अभिनन्दन है आपका, प्रतापमल्ल महाराज । जैन जगत के आप जो,चमके बन कर ताज ॥ चमके बनकर ताज, धन्य है जोवन तेरा, लेकर सयम, खूब पाप का तोडा घेरा । कहे "कीर्तिचन्द्र,' नन्द के प्यारे नन्दन,
जुग जुग जीते, रहो,सभी करते अभिनन्दन ।। मस्ती तेरी क्या कहूँ, ओ मेवाड सपूत । दर्शन आपके थे हुए, शहर आगरा मॉय । धन्य साधना आपकी, अहो । जैन अवधूत ॥ हुए वहुत ही वर्ष पर, स्मृति रही है आय ।। अहो जैन अवधूत, निराली महिमा तेरी, स्मृति रही है आय, भला क्या बात बताऊँ ? चकित समस्त संसार, देख गुण गरिमा तेरी। देखा था जो रूप, शब्द मे कैसे लाऊँ ? कहे "कीर्तिचन्द", नही बिल्कुल भी सस्ती, कहे "कीर्तिचन्द्र" हुआ था तन मन परसन । न्यौछावर कर सर्वस्व, पाई तूने यह मस्ती। ऐसे मुनि प्रतापमल्ल जी के हैं दर्शन ।।
समर्पण करता तुम्हे, श्रद्धा के कुछ फूल । गुच्छ हार के मध्य मे, इन्हे न जाना भूल ।। इन्हे न जाना भूल, नजर इन पर भी करना, करके मेरी याद, इन्हे अञ्जलि मे भरना । कहे “कीर्तिचन्द्र", इसी मे मेरा तर्पण, कर लेना स्वीकार, किये जो फूल समर्पण ।।