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१२० / मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
श्रद्धा के सुमन
-मगन मुनि 'रसिक' (तर्ज-दिल लूटने वाले जादूगर) गुरुदेव दयामय तेज पुज, मन मन्दिर के उजियारे हो ।
पद-पकज मे है विनय यही, जीवन के आप सहारे हो टेर है नाम आपका प्रतापमल जी, पण्डित प्रवर सुहाते हो, वाणी मे अमृत भरा हुआ, जन-मानस आप जगाते हो,
है हृदय सुकोमल मक्खन सा, समभाव सदा गुण वारे हो गुरुवर है जैन दिवाकरजी, जो जन-जन के मन भाये थे, भक्तो के गातिनिकेतन थे, वे जग वल्लभ कहलाये थे,
उनके ही शिष्य कहाते हो, सिर मौर सदैव हमारे हो मेवाड देश मे नगर देवगढ, जन्म-भूमि कहलाती है, वीरो की जननी विश्व-प्रसिद्ध, कवियो की वाणी गाती है,
जहाँ ओसवश में गाँधी-गौत्र, पितुमात के आप दुलारे हो उत्कृष्ट भावो से सजम लेकर, कूल को उजागर कीना है, जीवन की प्रगति हर-क्षण मे, प्रतिभामय सुयश लीना है, ___अविराम घूमकर देश-देश मे, वन गये सब के प्यारे हो हो सन्मति-पथ के पथिक आप, सद्ज्ञान सुनानेवाले हो, जो भूल गया है पथ अपना, पुन राह बतानेवाले हो,
शुद्ध सयम व्रत के पालक हो षटकाया के रखवारे हो हो ज्ञान प्रदाता धैर्यवान, मगलमय दर्शन नित पाएँ, हो नव्य भव्य जीवन के स्वामी, गौरवमय हम गुण गाएँ, __ अभिनन्दन सदा 'रसिक' चाहे, भक्तो के नयन सितारे हो
पांच-सुमन समर्पित हो !
-बसन्त कुमार बाफना, सादडी गरु प्रताप के चरण मे, वन्दन हो हजार। नील-सन्तोप-सिंगार से, दमके भव्य सुभाल । वरदान ऐसा चाहूँ, हो जीवन-उद्धार ॥१॥ सुवा सरस मुख से झरे, ज्यो निशाकर तार ।।२।।
जैन धर्म उन्नायक तुम, उपकारी गुरुराज
अभिनंदन करते सभी, मिलकर जैन समाज ।।३।। गाव-नगर मे घूमकर, किया अहिंसा प्रचार । पाच सुगन्धित ये सुमन, ज्यो महाव्रत पाच । हिंसा-अनीति-अन्याय, का किया प्रतिकार ।।४।। 'वसत शिष्य' आपका पूर्ण बात यह साच ॥५॥