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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाएं . वन्दनाञ्जलिया | १०३
आप के स्वभाव की शीतल छाया मे रहकर अमीम आत्मिक आनन्द उल्लास का अनुभव करते हैं। तथा अपने को शतवार भाग्यशाली मानते हैं।
___ शासक तो बहुत बन जाते हैं । किन्तु कसौटी की घडी निकट आने पर शासक और शासित (सेवक) दोनो भानभूल कर स्व कर्तव्यच्युन हो जाते हैं । परन्तु हमारे चरित्रनायक के सम्मुख कठिनाति कठिन अवसर आने पर भी आत्मभाव को भूलते नहीं है। अपितु अथाह सहिष्णुता समता धीरता मे ही रमण किया करते और उभरे हुए वातावरण को अपनी पैनी बुद्धि से शात बना देते हैं। वस्तुत निमने और निभाने की कला कुशलना का वरदान जो आप को प्राप्त है वह अन्यत्र इने-गिने अधिकारियो मे ही परिलक्षित होता है ।
सवल प्रेरक . यद्यपि भव्यात्माओ को भगवान का स्वरूप माना है । वन्धित कर्म दलिक ज्यो-ज्यो दूर हटते हैं त्यो त्यो देहधारी विदेह दशा की अर्थात् शुद्धता की ओर वढता जाता है। अन्तत केवल ज्ञान दर्शन को उपलब्ध कर वीतरागी कहलाने का अधिकार पा लेता है । जव सर्वोत्कृष्ट साधना के मर्म भेद को समझना ही दुष्कर है तो वहाँ तक पहुंचना और भी कठिन है । उसमे आश्चर्य ही क्या है ?
जब भूली-भटकी आत्माओ को कोई सच्चा गुरु अथवा सवल प्रेरक मिले, तभी वास्तविक आत्म-मार्ग की प्राप्ति, मुर्दे मन मे पुन उत्साह का निर्झर और तभी उच्चतम साधना शिखर तक पहुंचने का जीवन मे साहस प्रस्फुरित होता है । वरना साधारण से कष्ट से मानव का मन होतात्साह होकर पुन विपय वासना मे लौट आता है । इस कारण पामर प्राणियो के हितार्थ सवल प्रेरक की महती आवश्यकता रही है।
__"सतत प्रिय वादिन" अर्थात् हाँ मे हाँ मिलानेवाले हजारो है किन्तु "अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता सदा दुर्लभ" स्पष्ट एव पथ्यकारी प्रेरणा देने वाला वक्ता दुर्लभ माना गया है। गुरु भगवत का जीवन भी प्रत्येक मुमुक्षुओ के लिये योग्य प्रेरणा का ओज भरने वाला एव नई चेतना फूकने वाला सिद्ध हुआ है । ऐसे एक नही अनेकानेक उदाहरण मौजूद हैं जो निराशावादी जीवन मे शान्त सुधाभरी वाणी का सिंचन कर उन मुर्शित कलियो को विकसित होने मे अपूर्व साहस प्रदान किया है।
शान्ति के सस्थापक "शान्तिमिच्छति साधव" सत जीवन सदैव स्व-पर के लिये अभयात्यक शान्ति की कामना किया करते है । गुरु महाराज का सयमी जीवन भी जिम देश-नगर गावो मे विचरा है। वहां अशान्ति के कारणो की इति श्री कर शान्ति का शीतल-सुगन्ध समीर प्रवाहित किया है । विछुडे हुए दो भाइयो को मिलाए हैं, रोते हुए राहगीरो को हसाए हैं । फूट-फूट की परिस्थितियां मे सगठन एव प्रेम भरी वीणा ध्वनित की है । खण्ड-खण्ड के रूप में देखना आप को इष्ट नही है । यही कारण है कि आप जोडना जानते है न कि तोडना। भगवान महावीर के निम्न सदेश को आप ने निज जीवन के साथ जोडा है
बुद्ध परि निम्बुडे चरे, गाम गए नगरे व सजए ।
सती मग्ग च बूहए, समय गोयम ! मा पमायए । मुमुक्षु । भले तू गाँव, नगर, पुर, पाटन अथवा और कही विचरन करना किन्तु शाति मार्ग का उपदेश देने मे प्रमाद मत करना ।