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८६ | मुनि श्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ नही हुआ। वह ईयां वशात् जलकर खाक हो गये । कही स्थानकवासी साधुओ का पैर जम गया तो मेरी जमी-जमाई सारी दुकानदारी उठ जायगी इस मलीन भावावेश मे वह गुप्त ढग से उनके घरो मे मुनियो के प्रति विप-वमन-मिथ्या प्रचार करने लगे।
"ये ढढिये वहुत खराव होते हैं । अपने भगवान की निन्दा करते हैं । मुह वाधकर जीवो की हिंसा करते हैं । इसलिए इनके व्याख्यानो मे व सेवा मे कोई नही जावे । वरन् अपना धर्म भ्रष्ट हो जायगा।"
धर्मशाला मे मुनिवृन्द के व्याख्यानो का वढिया रग जम चुका था। श्रोतागण रुचिपूर्वक वाणी सुनते और शब्दो का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते थे कि कही हमारी आम्नायाओ का खण्डन तो नहीं कर रहे हैं । इस प्रकार व्याख्यान सप्ताह शान्त वातावरण व उत्तरोत्तर वृद्धि मे व्यतीत हो जाने के बाद कुछ कार्यकर्ता सदस्यगण गुरुदेव श्री की सेवा में उपस्थित होकर वोलेमहाराज | हमारे दिल-दिमाग मे आपके प्रति कुछ मिथ्या भ्रमना है । उन्हे दूर कीजिए।
को पत्थर कहकर अवहेलना करते हैं ? गुरुदेव-कौन कहता है ? हम भगवान की प्रतिमा को आप की तरह ही मूर्ति मानते हैं । केवल द्रव्य पूजा, व्यर्थ का आडम्बर, आरम्भ जिससे कर्मों का बन्धन और जोवो की विराधना होती हो, ऐसी क्रियाओ का हम क्या समूचा जैन दर्शन ही निषेध करता है । कहिये क्या आप आडम्बर को पसन्द करते हैं?
नही महाराज | जिन क्रियाओ से कर्म खेती निपजती हो, हम भी उन क्रियाओ को पसन्द नही करते हैं । आप के व्याख्यानो से हमारा समाज काफी प्रभावित हुआ है । हमे राग-द्वेप की बाते विल्कुल नहीं मिली। हमारी इच्छा है कि आप चातुर्मास पर्यन्त यही विराजें। हमे काफी मार्ग दर्शन मिलेगा। हमारे यति जी ने तो कुछ भ्रमना अवश्य भरी थी किन्तु आप की मधुर वाणी- प्रभाव से भ्रमजाल स्वत ही टूट गया है।
गुरु महाराज-सुनिए, हम श्रमण कहलाते हैं । कोई हमारा अपमान करे कि सम्मान । विरोध कि विनोद । हमे तनिक भी दुख नही होता। क्योकि हम विरोध को भी विनोद समझते हैं और सत्य का सदैव विरोध होता आया है।
__ आगन्तुक महाशयगण अपूर्व क्षमता, सरलता पाकर गुरुदेव के चरणो मे झुक पडे । अन्ततोगत्त्वा उन यतिजी को भी लज्जित होना पडा । जनाग्रह पर एक मास पर्यन्त मुनिवृन्द को वहाँ रुकना पडा। आशातीत शामन प्रभावना सम्पन्न हई।
१३ भ्रान्ति निवारण यह घटना सन् २०१४ की है। आगरा में विराजित पूज्य श्री पृथ्वी चन्द्र जी महाराज सा० आदि मुनि मण्डल के दर्शन कर मयशिप्यमडली के गुरुप्रवर धर्म प्रचार करते हुए कोटा राजस्थान की तरफ पधार रहे थे । बीच-बीच मे ईसाममीह के धर्मानुयायी एव इसाई प्रचारको की बहुलता परिलक्षित हो रही थी। प्राय इमाई धर्म प्रचारक चालाक हुआ करते हैं । वे उजाड एव पिछडी हुई पर्वतीय वस्तियो