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"द्वितीय खण्ड सस्मरण | ८५
- गुरु प्रवर के कर्ण-कुहरो मे उस शब्दावली की स्पष्टत झन-झनाहट आ पहुंची थी। बस. सडक के किनारे अपने उपकरणो को रखकर विना बुलाये गुरुदेव वहां पहुंचकर वोले-महात्मा जी । आप आनन्द मे हैं ?
___"कौन आप ?" प्रज्ञाचक्ष् जी बोले ।
मैं जैन भिक्षु हूँ। मेरे साथ दो मेरे अन्तेवासी है। हम कानपुर की ओर जा रहे हैं । यद्यपि आप दोनो के बीच मुझे नही आना था। फिर भी मैं आवाज सुनकर आ गया हूँ। मेरे आने से आपको दिक्कत तो नही ?"
नही, नही, हम आपका स्वागत करते हैं जैन महात्मा है कहाँ ? विराजिए ।
गुरुदेव-पीयूप भरी वाणी मेवोले-आप दोनो मे कुछ-कुछ विवाद की स्थिति हो रही है । ऐसा मैंने सुना है। क्या सत्य है ?
हाँ, महात्मा जी । प्रज्ञा चक्षु जी वोले—मेरा चेला यह मुझे छोडकर ससार मे जाना चाहता है । आप ही फरमा, मेरा क्या होगा । आप मेरे शिष्य को समझावें ।
गुरु महाराज-"तुम इनके शिष्य हो ?" "हाँ, गुरु जी।" "क्या तुम्हारी भावना दुनियादारी में जाने की है ?" लज्जावशात् उसकी ओर से कोई उत्तर नही था । गुरु-"मैं कुछ भी कहूँ तुम बुरा नही मानोगे ?" "नही, गुरुजी | आप भगवान हैं।'
माधक | ससार मे पुन प्रवेश करने का मतलव हुआ कि-तुम वमन की हुई वस्तु को पशुपक्षी की तरह पुन चाटना चाहते हो ? क्या यह शर्म की बात नहीं है ? क्या साधु जीवन के लिए कलक नहो ? जरा ठन्डे दिमाग से सोचो, उतावले न वनो । मोहान्ध होकर आत्मा को नरक के गर्त मे न धकेलो । गुरु-सेवा भाग्यवान को मिलती है । शीघ्र हा अथवा ना का उत्तर देओ । मुझे अभी आगे बढना है।"
ओजपूर्ण वाणी को सुनकर वह भूला पथिक काफी शर्मिन्दा हुआ। नीचे माथा नमाकर वोला--आपने मेरा अज्ञान हटा दिया। मैं कर्त्तव्य से भ्रष्ट हो रहा था। आप ने मुझे बचाया। अब मैं गुरु चरण सेवा छोडकर कही नही जाऊंगा।।
गुरु प्रवर की महती कृपा से दोनो महात्माओ के अन्तर्हृदय मे स्नेह की सुरसरी फूट पडी। समस्या सुलझाने वाले गुरुदेव के पावन चरणो मे दोनो महात्मा सश्रद्धा झुक चुके थे। प्रज्ञाचक्ष महात्मा जी को भी शिक्षा भरी दो बातें कह कर गुरुदेव ने आगे की राह ली।
१२ विरोध भी विनोद गुरुदेव आदि मुनिमण्डल लखनऊ पधारे हुए थे । लखनऊ क्षेत्र मे श्री श्वेताम्बर मन्दिरमार्गी सम्प्रदाय बन्धुओ के अधिक परिवार निवास करते हैं । स्थानकवासी मुनियो का शुभागमन सुनकर ये जन काफी हर्पित एव सश्रद्धा स्वागत समारोह मे सम्मिलित भी हुए। यह दृश्य वहाँ के यतिजी को सहन