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७८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
उपर्युक्त उद्गारो को पढकर मेरा मन मयूर खुशी के मारे नाच उठा मुझे आशातीत सतोप हुआ। जैसा कि कहा है-"दुर्लभा गुररवोलोके, शिप्यचित्तापहारका' अर्थात् ऐसे निर्लोभी गुरु ही वास्तव मे स्व-पर का कल्याण करने में समर्थ होते है। उन्ही का साहचर्य पाकर शिप्य का शिप्यत्व दिन दुगुना फलता-फूलता है । वस मैंने एक महान मनोरथ की सिद्धि के लिये कलकत्ते की ओर प्रयाण कर दिया।
४ सवल प्रेरक मम्वत् २०१६ का वर्षावास विलेपारले (वम्बई) मे था । चातुर्मास प्रारम्भ होते ही मैंने गुरुदेव श्री की प्रेरणा से ही हिन्दी, मस्कृत, प्राकृत परीक्षोपयोगी अध्ययन चालू किया था। "काव्य सेवा विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्" तदनुसार श्रावण एव भादवामास रत्न-त्रय की सवृद्धि के रूप मे बीता। स्थानीय सघ मे आशातीत धर्म प्रभावना हुई और हो रही थी।
आमोज का महीना चल रहा था। पठन-पाठन सुचारु रूप से गतिशील था। परीक्षोचित तीनो केन्द्र अर्थात्-हिन्दी रत्न, सस्कृत-विशारद, एव सिद्धान्त प्रभाकर के केन्द्र अनुकूलतानुसार पृथकपृथक कॉलेजो मे चुनकर आवेदन पत्र भी भर दिये गये थे।
सहसा मेरे पारिवारिक जनो की तरफ से उन्ही दिनो हृदय-विदारक विघ्न आ खड़ा हुआ। विघ्न भी वववत कठोर एव लोमहर्पक था। साधारण साधु तो क्या, वडे-वडे गुरु-महत भी गड़बडा उठते हैं । वात ऐसी बनी कि जब मैंने (रमेश मुनि) दीक्षा व्रत स्वीकार किये थे, तव निश्चय नयका आधार लेकर गुरुदेव एव झरिया श्री सघ आदि सभी को मैंने एक ही उत्तर दिया था कि-"समारी पक्ष में मेरे कोई नही है" तभी सघ एव गुरुदेव ने मुझे दीक्षा व्रत प्रदान कर कृत-कृत्य बनाया था।
वस्तुत कुछ वर्षों के बाद छिपी हुई मेरी वाते धीरे-धीरे खुल पडी । पारिवारिक जनो को मेरा विश्वसनीय पता लगते ही (विलेपारले वम्बई) वहां आ खडे हुए। पुन ससार मे मुझे ले जाने के लिये वे लोग तन तोडकर तैयारी मे थे । अतएव वातावरण काफी दूपित हो चुका था। अशात वातावरण के कारण अध्ययन क्रम वही का वहीं रुक सा गया । परीक्षोपयोगी उमगोल्लास हवा हो चुका था।
ऐसी परिस्थिति के अन्तर्गत मैंने गुरुदेव से कहा-अब मुझे कोई भी परीक्षा नही देना है चकि दिन प्रतिदिन वातावरण विपाक्त वनता जा रहा है। नित्य नई नई बातें खडी हो रही हैं। इस कारण अध्ययन मे विल्कुल चित्त नही लग रहा है । पता नही भावी गर्भ मे क्या छिपा है ?
___ मेरे निराशा भरे उद्गारो को सुनकर गुरुदेव कुछ उदासीनाकृति मे वोले-वत्स | परीक्षा काल सन्निकट आ रहा है, अध्ययन भी अच्छा हुआ है। सात-सात दिनो के अन्तर मे तीनो परीक्षाएं पूर्ण हो जायेगी । घबराना नही चाहिए । पारिवारिक समस्या को सुलझाने मे व उन्हे समझाने मे मैं और सकल सघ यथाशक्ति प्रयत्नशील हैं। क्या तुम्हे पता नही ? "होती परीक्षा ताप मे ही स्वर्ण के सम शुर की" अर्थात् कमोटी माधक जीवन की ही हुआ करती है। क्या दिवाकर जी महाराज सा० एव पूज्य प्रवर श्री खूबचन्द जी महाराज पर मुसीवते नही आई ? यदि तुम अपने साधना मार्ग मे मजबूत हो तो कोई भी शक्ति तुम्हे डिगा नहीं सकती । इसलिए तुम विल्कुल हताश न बनो । पुस्तकें खोल कर देखो। मिर पर मडगया हुआ संकट शात शीतल समीर के झोको से स्वत विलीन हो जायगा ।
गुरुदेव के शुभाशीर्वाद से वैमा ही हुआ। तीनो परीक्षा विघ्न रहित पूर्ण हुई । परिणाम भी अच्छे उपलब्ध हुए। विघ्न-विघ्न के ठिकाने पहुंचा। गुरुदेव की सवल प्रेरणा ने मेरे मन मस्तिष्क में ऐसी चेतना फू की जो अद्यावधि वही चेतना मुझे प्रतिपल प्रेरित कर रही है।