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प्रथम खण्ड इन्दौर चातुर्मास एक विहगावलोकन | ६३ उत्माही युवको द्वारा प्रत्येक रविवार को एक विशेप आयोजन कभी राजवाडे मे महावीर भवन मे होता। श्रावण-भादवे के दिनो मे जैसे वसुन्धरा का विशाल प्रागण हरा-भरा सरसन्न दृष्टि पथ होता है उसी प्रकार गुरु भगवत की वागतियश प्रभावेण भव्य मानस भूमि सरसन्ज स्वच्छ निखर उठी । एव जप-तप-शील सन्तोष श्रद्धा की अपूर्व उन्नति के माथ-साथ वाहरो दर्शनार्थी मुमुक्षुओ का भी एक ऐसा स्रोत प्रवाहित हुआ, जो इन्दौर स्थानकवासी मघ के इतिहास मे अद्वितीय था। इस प्रकार पयुर्पण पर्वाराधना एव लोकाशाह, दिवाकर जयन्ति महोत्सव आदि भी उन्साहपूर्वक सपन्न किये गये।
सघ सचालको को दूरदर्शिता - चारो मास पर्यन्त सघ सदन मे स्तुत्य शान्ति-सगठन एव स्नेह की वीणा बजती रही। जो सचमच ही अनुकरणीय ही थी। यद्यपि इस वर्षावास मे विद्वप विद्रोह के अनेको ऐसे नैमित्तिक तत्त्व अभिमख थे जो थोडी-सी विफलता पर राई का पर्वत एव तिल का ताड खडा कर दें। किन्तु सघ के जाने-माने विद्वद् वर्ग एव गुरुदेव प्रताप और सौभाग्य की वेजोड़ शान्ति-क्रान्ति ने ऐसा छिटकाव किया कि वे साम्प्रदायिक कटु तत्त्व भी सूल के फूल वन विछ पड़े।
सघ मे पर्याप्त शात वातावरण रहा । यह सर्व श्रेय सचालको के सिर पर रहता है उनमे से प्रथम श्रेय के घनी हमारे चरित्रनायक और श्रद्धय मालव केशरी श्री सौभाग्य मल जी म० है । जिनकी स्मित मुख मुद्रा पर आठो पहर शान्ति अठखेलियां करती है। जिनकी वाक्-शक्ति मे अद्वितीय भक्ति माधुर्य का सागर लहलहाता है। जो विनोदी को तो क्या पर विरोधी को भो आकृष्ट किये बिना नही रहता। जिनकी व्याख्यान शैलो जहां भव्य मानस को वैराग्य से मीगोती है, तो दूसरी ओर जीवन को झकझोरने वाली वही फटकार और ललकार । जहा हास्य एव वीर रस से श्रोताओ के मन-मुख एक साथ ही वाग-वाग हो जाते हैं । तो दूसरी ओर यदा-कदा करुणारस परिपूर्ण आपकी वाणी द्वारा सुनने वालो की
आंखो मे श्रवण-भादवा भी छा जाता है । इस प्रकार मुख्य रुपेण 'आत्मधर्म' विपय के अन्तर्गत ही उपरोक्त विभिन्न स्रोत आप के मुख हिमाचल से नि सृत होते रहते हैं। थोडे मे कहे तो सचमुच ही आप एक अनोखे जादू के अवतार हैं जो रुष्ट-तुष्ट एव योगी-भोगी आदि सभी को अपना अनुगामी बना ही लेते हैं।
स्व० श्री किशनलाल जी म० के प्रति आपकी भक्ति व श्रद्धा वेजोड मालूम पडी । एव सर्व साधुओ को निभाने एव पुकारने की कला का तरीका भी एक अनूठा देखने को मिला-ईश्वर | भगवान | कृपालु पधारो आदि-आदि आपके सम्बोधन के मुख्य सुमधुर चिन्ह हैं । आपका दिल जितना विशाल है, उतना ही मस्तिष्क विराटता को लिए है और वाणी मे भी उतनी ही मधुरता का वास है। जो छोटे-मोटे सभी यात्रियो को साथ में लेकर चलने की क्षमता रखते हैं । श्रमण-सघ के प्रति आप के जीवन का कण-कण एव रोम-रोम वफादार प्रतीत हुआ। कई वक्त आपने फरमाया भी था कि-"क्या करूँ ? मेरे घुटनो मे अव वह शक्ति नहीं रही, अन्यथा श्रमण सघ के लिए गुजरात, पजाब आदि प्रान्तो मे एक चक्कर लगा आता और अन्य सतो को भी मिलाने का भरसक प्रयत्न करता।" ऐसा भी देखने, सुनने में आया कि आप के प्रत्येक व्याख्यानो मे श्रमण-सघ पुष्टि के उद्गार स्फुरित होते रहते थे । अत नि सन्देह सघ-स्तम्भ के आप एक सफल सरक्षक सुभट प्रतीत हुए। ऐसे गुण रत्नाकर एव श्रमण-सघ के चमकतेदमकते रत्न युग-युग तक आत्मदर्शक के रूप मे विद्यमान रहे वस यही मन की शुभाकाक्षा है।
आपकी स्नेहमयी शीतल छाया मे रहने का यह प्रथम अवसर था। स्व० माध्वाचार्य, स्व० श्री