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६० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ पारस्परिक सगठन-सहयोग के प्रभाव से अत्यधिक बल मिला। काफो दिनो तक विराज कर सर्व मुनि मण्डल ने झरिया की राह पकडी। जहा मेरे (रमेश) दीक्षोत्सव का गुजराती स्थानक वासी जैन समाज की ओर से एक अभूतपूर्व आयोजन का श्री मगल होनेवाला था।
दीक्षा का शखनाद - झरिया सघ एक सुसम्पन्न अनुभवी, दीर्घदृष्टि-दर्शक एव शुद्ध स्थानकवासी परम्परा श्रद्धा का सदैव अनुगामी रहा और है । जहा सौ से भी ज्यादा सुखी-सुयोग्य जैन परिवारो का वास है। दीक्षा की शुभ सूचना का शख शम्मेदशैल से ही इतस्तत प्रमारित हो चुका था । एतदर्थ झरिया निवासियो मे वेहद उत्साह-उमग उल्लास का वातावरण छा गया, जिसमे बहिनो मे तो मानो खुशी का पारावार ही उमड पडा था । वहुत मे जैन वाल व युवको ने आहती दीक्षा के अद्यावधि दर्शन तक नही किये थे और दूसरा कारण यह भी था--कि बिहार प्रात मे काफी शताब्दियो से जैन दीक्षा का सिलसिला अवरुद्ध था। इसलिए पुन इस शुद्ध मार्ग का गुरु भगवत द्वारा उद्घाटन हो रहा था अतएव हर्प भरा वातावरण होना स्वाभाविक ही था।
मैने उत्तर दियामेरी ज्ञान, घ्यान साधना को देखकर सघ के मदस्यगण बहुत ही प्रभावित हुए । मेरे परिवार के विपय मे भी सघ ने पूरी पूछ-ताछ की। यद्यपि अनेको पारिवारिक जन मौजूद थे और है । लेकिन भावी कठिनाइयो के भय से मैंने निश्चयवाद की शरण लो -जैसा कि
कोना छोर ने फोना घाछरु कोना धाय ने वाप ।
अन्तकाले जावू एफलु साथे पुण्य ने पाप ।। सवो को मेरा एक ही उत्तर था—जो उत्तर गुरुदेव को था वही उत्तर सघ को, और वही अन्य मानवों को भी-'मेरे कोई नही है, मेरी आत्मा अकेली आई और अकेली ही जायेगी।" बस, विश्वासपूर्वक झरिया श्री सघ ने मुझे अपना ही लाडला मानकर, तथा तत्र विराजित मुनिवरो की जन-मानस को झकझोरने वाली वाणी ने सघ मे नया प्राण फूका, नई चेतना पनपाई एव नया जोशतोप का सूत्रपात किया।
हर्ष ही हर्षजहा देखो वहा हसी खुशी के फव्वारे फटने लगे, जहा देखो वहां गाजे-बाजे, गीतो की मनलुभावनी सुरीली तान, जहा देखो वहाँ शासन-शोभा की वाते, जहा देखो वहा आत्मीक वीणा की सुमधुर तान एव जहा देवो वहा धार्मिक प्रतिष्ठा के शुभ दर्शन होने लगे।
गुजराती-रीति-रिवाज के मुताविक दीक्षोत्सव प्रारम्भ हुआ। कई दिनो तक सम्मिलित प्रीतिभोज तो दूसरी ओर रजोहरण पात्र, शास्त्र एव वस्त्रो की बोलिया पर वोलिया लगना शुरु हुई । जिमको गुजराती भापा मे "उच्छवणी" कहते हैं।
थोडे ही समय मे सर के रमणीय प्रागण मे हजारो रुपयो का ढेर सा लग गया। मानो कुवेर प्रमन्न चित्त होकर नभ से बरस पडा हो । इस प्रकार आगन्तुक हजारो दर्शको ने इम अभूत पूर्व समारोह मे भाग लिया दर्शन किया और अपने को कृत-कृत्य मानते हुए जैन श्रमण के आचार विचार की भूरि-भूरि प्रशमा करने लगे।
इस प्रकार वंशाख शुक्ला सप्तमी की शुभ-मगल वेला मे मैं (रमेश मुनि) गुरु प्रताप के पवित्र पूजनीय पाद चिन्हों पर चलने के लिए श्रमण धर्म मे प्रविष्ट हुआ।