________________
५८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
परिवार में अवश्य हुआ था। किन्तु जैन आचार-विचार मे मैं सर्वथा अनभिज्ञ ही था। फिर भी मन में एक ही तमन्ना, एक ही लगन और एक ही धुन थी-वम सर्व सासारिक सावद्य प्रतियो से मख-मोडकर गुरु भगवत श्री प्रतापमल जी म० एव पण्डित रत्न श्री हीरालाल जी म० के साहचर्य मे आहती दीक्षा शिघ्रातिशीघ्र ले लेना ही उपयुक्त रहेगा। इस महान् मनोग्य को मन-मजूपा मे सुरक्षित रखता हुआ, गुरू प्रवर श्री की पवित्र सेवा मे हाजिर हुआ।
इस प्रकार सर्व आयोजन शान्तिपूर्वक सम्पन्न हुए। कलकत्ता सघ की सेवा-भक्ति सराहनीय एव अनुकरणीय थी। यह वर्षावास भी अपनी शानी का अनोखा था।
LICKR
न