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प्रथम खण्ड शास्त्रीय-अध्ययन | ३७ क्लेश छिडते हैं, दानवता मानव के मस्तिष्क पर छा जाती है और उन्मार्गी भी वनने मे देर नही लगती है । वस्तुत वह साधक एव वह समाज अपने अभीष्ट मार्ग तक न पहुंच पाते हैं और न वास्तविक तत्त्वो का उपचयन भी कर पाते हैं। चूंकि-सम्यक्ज्ञान के अभाव मे मानव सूझता हुआ भी अघा, पगु एव लुला-लगडा माना गया है। अधा-अज्ञानी नर-नारी पग-पग और डग-डग पर ठोकरें खाता हुआ यदा-कदा खुना-खूनी भी हो जाता है। इसलिए भ० महावीर के उद्घोप की ओर ध्यान देना प्रत्येक के लिए जरूरी है
तम्हा सुयमहिट्ठिज्जा, उत्तमट्ठगवेसए । जेणप्पाण परं चेव, सिद्धि सपाउणेज्जासि ॥
' -भ० महावीर-उत्तराध्ययन अ० ११ । गा० ३२ अतएव मोक्षाभिलापी मुमुक्षुओ को चाहिए कि-उस श्रु तज्ञान को सम्यक् प्रकार से समझे और पढ़ें--जो निश्चयमेव अपनी और दूसरो की आत्मा को अपवर्ग (मोक्ष) मे पहुंचाने वाला है ।
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