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प्रथम खण्ड . गुरुवर्य की परिचर्या | ३६
सिद्धान्त की तह मे - सिद्धान्त में विनीत अन्तेवासी उसी को अभिव्यक्त किया है-"जो अधिक से अधिक ज्ञान निधि पाकर विनम्र रहता है, ससार में वह यशस्वी होता है । जिस प्रकार पृथ्वी पर असख्य प्राणी आश्रय पा लेते हैं उसी प्रकार नम्र व्यक्ति के हृदय में सद्गुण आश्रित होते हैं।"
-उत्तराध्ययन १४ "जो गुरुजनो की सेवा और विनय करता है, उसको शिक्षा मधुर जल से सींचे गए वृक्ष की तरह अच्छी तरह फलती फूलती है ।"
- दशवकालिक ६।१२ "जिन गुरुजनों के चरणो में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उनका सदा आदर और सम्मान-सत्कार करना चाहिए, वाणी से भी और व्यवहार से भी।"
-दशवै० ६।१२ प्रसन्न चित्त होकर प्रकृति देवी ने स्वभावत ही विनय गुण हमारे चरित्र नायक के जीवन मे इस तरह कूट-कूट कर भर दिये हैं। मानो विनय गुण को साक्षात् मुस्कराती प्रतिमा ही हो । आप जव अपने गुरुदेव अयवा वडे-बुजर्ग मुनिवरो की वैयावृत्य करने मे तन्मय हो जाते हैं, तब आप को अतुलित आनन्द, अपार शान्ति-प्रसन्नता की अनुभूति होती है । मेरा समय, मेरा जीवन सफल हुआ, ऐसा मानते हुए वार-बार अपने भाग्य को सराहते रहते है-अरे प्रताप । “सेवाधर्म परमगहनो योगिनामप्य गम्य" अर्थात् सेवा धर्म परम गहन है, योगी जन भी जिमका किनारा पाने मे यदा-कदा हार जाते हैं वह शुभावसर तुम्हे मिला है। जो साक्षात् आनन्द का नन्दनवन, कल्पतरुवत् सर्व मनोरथ पूरक, सर्व चिन्ताओ को शमन करने मे चिन्तामणि रत्न से भी ज्यादा है, सर्व गुण रत्नाकर और सन्तोष का अक्षय कोप है । अतएव गुरु परिचर्या-सेवा सरिता में डुबकी लगाकर जीवन-चद्दर को क्यो न धो लिया जाय " मचमुच ही महा मनस्वियो का मिलाप पूर्व पुण्य का प्रतीक माना गया है । उसी प्रकार शान्तस्वभावी गुरु और विनीत अन्तेवासी का मेल भी एक महान कार्य का द्योतक है। "रमए पडिए सासं, हय मद्द व वाहए" जिस प्रकार उत्तम घोडे का शिक्षक प्रसन्न होता है, वैसे ही विनीत शिष्य को ज्ञान देने में गुरु भी प्रसन्नचित्त होते हैं।
गुरु प्रवर का शुभाशीर्वाद - योग्य विनीत-वैयावृत्त्यसम्पन्न विद्वद् व्याख्याता शिष्य की गुरु को सदैव चाहना रही है। हमारे चरित्रनायक द्वारा की जाने वाली सेवा भक्ति मे आकृष्ट होकर गुरु भगवन्त श्री नन्दलाल जी म० सदैव प्रभावित-प्रफुल्लित रहते थे और "प्रताप" नाम से न पुकार कर "कूका-कूका ।" इस प्रकार सीधी मादी मीठी मृदु भाषा मे ही पुकारा करते थे। इससे स्वत मालूम हो जाता है कि गुरुदेव की अनन्य-अद्वितीय कमनीय कृपा आप (प्रताप गुरु) पर रहती थी। फलस्वरुप किसी खास कारण के अतिरिक्त सदैव आप को अपनी सेवा मे ही रखते थे। ऐसे महामहिम निर्ग्रन्थ गुरु के सान्निध्य मे रहने से तथा अनेकानेक मनस्वी. मुनि वरिष्ठो के शुभाशीर्वाद से दिन दुगुनी और रात चौगुनी आप की प्रगति अविराम होती रही।
'आणाए धम्मो आणाए तवो" शास्त्रीय नियमानुसार गुरु एव तत्कालीन शासन शिरोमणि आचार्य प्रवर के अनुशासन में रहना, उनके वताए हुए आदर्श-आदेशो को मनसा-वाचा-कर्मणा कार्यान्वित करना, सच्ची सेवा, वास्तविक धर्म की सज्ञा एव शासन के प्रति बफादारी का सबल सबूत