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शास्त्रीय-अध्ययन
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जीवन निर्माण में शास्त्रःतवो गुण पहाणस्स. उज्जुमइ खत्ति सजमरयस्स। परिसहे जिणतस्स, सुलहा सोग्गई तारिसग्गस्स ॥
-दशवकालिक सूत्र मुमुक्षु । तपरूपी गुण से प्रधान, सरल बुद्धि वाले, क्षमा और सयम मे तल्लीन, परीषहो को जीतनेवाले साधु को सुगति अर्थात्-मोक्ष मिलना सुलभ है।
शास्त्र वह है-जिसमे जीवन की प्रत्येक गतिविधि का सम्पूर्ण चित्र मिले और जिसमे वैराग्य तथा सयम का मार्गदर्शन हो । शास्त्र का लाभ यही है कि-उससे मानव अपने विचारो को गति देता है। अपने को समाज के अनुकूल बनाता है और अपना समर्पण समाज और धर्म के प्रति करके अपने को पूर्णत लघुभूत बनाता है । अतएव मानव जीवन के नव-निर्माण मे शास्त्र-सिद्धान्त एक मौलिक निमित्त माने गये हैं। वस्तुत शास्त्र उभय जीवन सुधारने की कु जी व तत्त्व रत्नाकर है। "जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पेठ' की युक्ति के अनुसार साधक ज्यो ज्यो सिद्धान्तो की गहराई तक पहुंचता है, त्यों-त्यो उम अन्वेपक साधक को महा मूल्यवान द्रव्यानुयोग, कथानुयोग, गणितानुयोग व चरियानुयोग आदि नानाविध इष्ट अभीष्ट तत्त्व-रनो की प्राप्ति होती है। फलस्वरूप शास्त्ररूपी लोचन प्राप्त हो जाने पर वह मुमुक्ष इतस्तत मिथ्या अटवी मे न भटकता हुआ, निज जीवन मे सम्यक् ज्योति को प्रदीप्त करता है। साथ ही साथ राष्ट्र एव समाज जीवन को भी उसी प्रखर ज्योति मे तिरोहित करने का सुप्रयत्न करता है।
जैसे खाद्य एव पेय पदार्थ इस पार्थिव शरीर के लिए अनिवार्य है उसो तरह कर्म-कीट को दूर करने के लिए शास्त्र-स्वाध्याय एव पठन-पाठन प्रत्येक भव्यात्माओ के लिए जरूरी भी है । फलत विभाव परिणति की इति होकर भूल-भूलया मे भ्रमित आत्मा पुन स्वधर्म-सुखानन्द मे स्थिर होकर परिपुष्ट, परिपक्व शुद्ध-साधना की ओर अग्रसर होती है। कहा भी है
ससारविषवृक्षस्य, द्वे फले अमृतोपमे ।
____ काव्याऽमृतरसास्वाद सगम सज्जन सह ॥ अर्थात्---ससाररूपी विपवृक्ष के दो ही सारभूत फल माने गये है--एक तो स्वाध्यायामृत का रसास्वाद और दूसरा अमृत फल है---गुणी जना की सगति ।
मिथ्या श्रुत-एक अधेराश्रुत (शास्त्र) के दो विकल्प माने गये हैं--मिथ्याश्रुत और सम्यक्श्रुत । मिथ्याश्रुत एकान्तवादी असर्वज्ञ पुरुप प्रणीत माना गया है। सभव है-जिसमे कही त्रुटियां तो, कही राग द्वेप एव तेरे-मेरे की झलक स्पष्टत झलकती है। एक स्थान पर मडन तो कही अन्य स्थान पर उसी विपय का