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३४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ उसी लेखक द्वारा खण्डन लिखा मिलता है। इस कारण उसे अनाप्त श्रुत या मित्र्याश्रुत की मना दी गई है । मिथ्या श्रत स्व-पर जीवनोत्थान मे सहायक न बनकर वाधक एव रोधक है, तारक नहीं मारक है, ज्योति नही ज्वाला है और ज्यादा कहे तो मिथ्या श्रुत मृत्यु है, विप है, अणान्ति है, एव दुख का अथाह सागर है। अतएव शास्त्र में कहा है "सव्वे उम्मग्ग पछिया" अर्यात् एकान्तवादी जन मभी उन्मार्ग में चलने वाले होते हैं। अत "दूरओ परिवज्जए" अर्थात् उनका सहवाम-उनकी मान्यता-मत पथ को विषवत् समझकर त्याग देना चाहिए।
सम्यक् श्रुत का कार्य क्षेत्रअत्थ भासइ अरहा, सुत्त गथति गणहरा निउण ।
सासणस्स हियठाए, तओ सुत्त पवत्त इ ।। अर्थात्--शासन के हितार्थ सूत्रो की प्ररूपणा हुई है-मूल अर्थों के प्ररूपक मर्वज्ञानी अरिहन्त हैं और सूत्रो के रूप मे गु फित करने वाले निपुण ज्ञान निधान गणघर माने गये हैं।
__सूत्र का मूल प्राकृत शब्द क्या है ? सूत्र को प्राकृत भाषा मे "सुत्त" कहते हैं । जिसका एक अर्थ होता है--सूत्र (सूत) यानी धागा । अभिप्राय है जो उलझी हुई, विखरी हुई चीज को एक जगह एक क्रम से जोड देता है । क्रमानुसार से रखी हुई वस्तुओ को पाना आसान होता है-उसमे काफी हद तक स्पष्टता रहती है । सूत्र का दूसरा अर्थ है-सूचना-'सूचनात् सूत्रम्' पाठक वृन्द को पूर्व सन्दर्भ एव अर्थों की ओर इशारा करता है। 'सुत्त' का अर्थ सोया हुआ भी किया गया है। राजस्थानी भाषा मे आज भी 'सुता' कहते हैं । अर्थात् शब्दो मे उसका आत्मा अर्थ एव भाव मोये हुए है । अतएव विस्तृत भाव व्यजना की अपेक्षा रहती है। "आप्तवचनादाविर्भूतमर्यसवेदनमागम"
--प्रमाणनय तत्त्वालोक आप्त (सर्वज्ञ) के वचनो से होने वाले पदार्थों के ज्ञान को सम्यक् श्रुत कहा गया है। सर्वथा राग द्वेष के विजेता एव कही जाने वाली वस्तु स्वभावो को अच्छी तरह से सम्पूर्ण पर्यायो को जानता हो और जैसा जानता हो, वैसा ही कथन करता हो अर्थात् भूत-भविष्य व वर्तमानकाल के सर्वथा ज्ञाता हो उन्हे आप्त पुरुप माना गया है। "तस्य हि वचनमविसंवादि भवति ।" अर्थात्-उस यथार्थ ज्ञाता और यथार्थवक्ता का प्रकथन ही विसवाद रहित होता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि-आप्त वाणी मे न कोई त्रुटि एव न पूर्वापर विरोध रहता है। क्योकि उनकी शैली नय-निक्षेप प्रमाण आदि तत्त्व गभित एव अनवरत गति से बहने वाली समन्वय एव स्याद्वाद सुधा की स्रोतस्विनी रही है। जो समष्टि के कोने-कोने को आद्रं करती हुई आगे बढती है। स्व-धर्म, एव पर धर्म का सागोपाग यथोचित स्थानो पर विश्लेपण किया मिलता है । हिंसा को हिंसा, पाप को पाप और मिथ्यात्व को मिथ्यात्व ही माना गया है। भले वे कृत-क्रिया कर्म, धर्म अथवा ससार के नाम पर हुए हो । परन्तु "हिंसा नाम भवेत् धर्मो न भूतो न भविष्यति' अर्थात्-हिंसा हिंसा ही रहेगी। यह है आगम की गारटी। इस प्रकार सम्यकश्रु त की दृष्टि मे मानव मात्र को समानाधिकार है । जाति-कुल-परिवार को बढावा न देकर गुणो को मुख्यता दी है। भले उस पार्थिव शरीर पर किसी जाति कुल का सिक्का या मार्का क्यो न लगा हुआ हो । "यत् सत्य तत् मम" जीवन विकास के हेतुभूत जो मार तत्त्व हैं वे मेरे हैं और समस्त समष्टि की वपौती है। यह सम्यक् श्रुत का अमर