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प्रथम खण्ड : जैन दीक्षा माहात्म्य | २६
अर्थात् अल्प अशो मे विरति को अणुव्रत और सर्वाशो मे विरति को महाव्रत कहा जाता है।
जैन भुगोल के आधार पर साधना का क्षेत्र पैतालीस लाख योजन विस्तार वाला माना गया है । मुमुक्ष साधना को भले अणु रूप से स्वीकार करें किंवा अखण्ड रूप से अगीकार करे । साधना का मतलव है-आत्मा को यौगिक वनाना। योग का अर्थ है—जोडना । जो अपनी वृत्तियो को नियमोपनियम मे नियोजित एव रत्नत्रय की त्रिवेणी मे प्रवाहित करता है - बस, वही साधक और वही योगी है । इसका नाम जीवन-मुक्त दशा की खोज और मरते हुए भी अमरता की सच्ची अन्वेपणा है । इसका अर्थ यह होगा कि वह यद्यपि सासारिक प्रवृत्तियो मे भाग ले रहा है । तथापि वह अनासक्त है । वह खाता-पीता है, किन्तु केवल जीवन निर्वाह के लिये। जैसा कि-"Eat to live and do't live to eat" अर्थात्-जीने के लिये खाओ, खाने के लिये मत जीओ।
अनासक्ति भाव आत्मीय सात्विक वृत्ति है। जो भव्य को अजरता-अमरता की ओर प्रेरित करती है। जव कि—आसक्ति भाव निविड मासारिक बन्धन है। जो प्रकाश से अन्धकार की ओर एव मानवता से दानवता की ओर घसीटती है। मानव यह अच्छी तरह जानता है कि-हिरण्य-सुवर्ण-द्विपद-चतुष्पद, चराचर सम्पत्ति मुझ से भिन्न वस्तु है । तथापि वह उनमे गृद्ध और गृद्ध भी उतना कि उसके मन-मदिर मे तुष्टि-पुष्टि का दुष्काल सा ही रहता है। यह है आसक्त मानव की दयनीय दशा । जव कि-अनासक्त साधक वाहरी वैभव रूपी झुरमुट को केवल जीवन निर्वाह का साधन मानता हुआ, मौका आने पर तृणवत् त्याग कर, वैराग्य युक्त होकर हर्षोल्लमित होता हुआ अकिंचनावस्था मे आ खडा होता है ।
यहाँ से त्याग मार्ग की प्रशस्त दो सुवीथिकाएँ प्रारम्भ होती हैं। गृहस्थ साधक (अणुव्रती) और पूर्ण रूपेण सयमी साधक (महाव्रती) । दोनो प्रकार के साधको का लक्ष्य-उद्देश्य भिन्न नही, अभिन्न है, अनेक नहीं एक है-सिद्धालय तक पहुचना, कर्मों से मुक्ति पाना एव सत्य-स्वतन्त्र दशा को प्राप्त करना । अतएव महापुरुपो ने दोनो मार्गों को प्रशसनीय एव जीवन के लिये अनुकरणीय आदरणीय वताए हैं।
जन (आर्हती) दीक्षादीक्षा वही है, जो पूर्ण सयम की साधना का व्रत हो। वैराग्य सुधा मे ओतप्रोत बना हुआ मुमुक्ष सयमी प्रक्रिया को कैसे सम्पन्न करता है ? यह बतलाने के लिये मे जैन-दीक्षा की कतिपय वरिप्ठविशेषताएँ यहाँ दर्शाऊंगा। क्योकि विभिन्न धर्मों की दीक्षा प्रणालियां विभिन्न हैं । अत. आवश्यक होता है कि मैं आगतुक जैन-जैनेतर दर्शको को जैनधर्म की दीक्षा पद्धति से परिचित कराऊँ। जैनदीक्षा का अर्थ है-"सर्व सावध योगो से निवृत्त होना।" अर्थात्---शुद्धावस्था के वाधक एव घातक सर्व क्रिया-काण्डो का परित्याग करना। इन्हें पाच विभागो मे बाटे गये हैं
(१) हिंसा-परितापना, प्राणो से रहित करना, अपने स्वार्थ के लिए अन्य का सर्वस्व विनाश ।
(२) असत्य--असत् भापा का प्रयोग, मिथ्या आग्रह, भाव-कुटिलता और करनी कथनी मे अन्तर।
(३) चोरी-परवस्तु उठाना, अधिकार छीनना एव ठगना। (४) अब्रह्मचय-मन-वाणी-काय शक्ति का असयम मे प्रयोग । (५) परिग्रह-ममत्वभाव एव मूर्छा भाव मे रमण । दीक्षा का उम्मीदवार भाई तथा वाई अपने गुरु एव सैकडो हजागे मानवो की साक्षी से