________________
जैन दीक्षा माहात्म्य
mmmm...mmm
साध्य को सफल करने का तरीका - "आत्मा सो ही परमात्मा” नन्ही सी यह युक्ति जन-जन की जिह्वा पर काफी प्रचलित एव काफी अशो मे सत्य ही नही बल्कि शतप्रतिशत सत्य है। क्योवि-मोक्ष का अधिकारी आत्मा को ही माना गया है।
___ "मोक्ष किसके लिए?" उत्तर मे सर्व धर्म ग्रन्थो का एक ही उद्घोप घोपित होगा किदेही के लिए, चैतन्य के लिए, जीवधारी के लिए न कि जड वस्तु के लिए। अतएव जगत् के अधिकाश मानव समूह को प्रकट एव प्रच्छन्न रूप से यह शुभाकाक्षा अवश्य रही है-"हम परम चरमोत्कर्ष दशा, को प्राप्त करें।" परन्तु शुद्धावस्था पाने के लिए पर्याप्त सम्यक् परिश्रम, अन्तरग शुद्धि, आत्म-नियन्त्रण इन्द्रिय व मनोनिग्रह एव समूल कपाय-इति श्री के साथ-साथ महानता के प्रतीक नाना विध गुण रूपी गुल दस्तो से आत्मा की वास्तविक सजावट परमावश्यक मानी गई है। तदनतर ही साध्य (मोक्ष) सिद्धि की असीम-अनन्त-निधि-समृद्धि हाथो मे ही नहीं अपितु हृदय के प्रागण मे चमकने लगती है एव जीवन मे दमकने लगती है।
हा, तो साध्य की अक्ष ण्ण-अखड सफलता के लिए रत्नत्रय (सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की आराधना प्रत्येक भव्य के लिए उतनी ही जरूरी है, जितनी रोगी के लिए औषधि और रक के लिए धन निधि । चूंकि-भव्यात्मा ज्ञान-विज्ञान की एक बहुत बडी प्रयोगशाला है। मोक्ष-साध्य के प्रयोग हेतु भव्य-मानम स्थली को सुरक्षित केन्द्र माना गया है। वही पर उपरोक्त प्रयोग-परीक्षण पुप्पितपल्लवित एव फलित होता है। आत्मसाधना का पथ यद्यपि कटकाकीर्ण है, अनेकानेक कठिनाई एव तूफानो से घिरा हुआ है। जैसा कि
हदि धम्मत्य कामाण, निग्गथाण सुणेह मे।। आयारगोयरं भीम, सयल दरहिछिय ॥
-दशवकालिक सूत्र अ० ६ गा० ४ हे देवानुप्रिय । श्रुत चारित्र रूप धर्म और मोक्ष के अभिलापी निर्ग्रन्थ मुनियो का समस्त आचार-विचार, जो कर्मरूपी शत्रु ओ के लिए भयकर है तथा जिसको धारण करने मे कायर पुरुप घवराते हैं।
तथापि ऐसे दुरुह तथा कठोरातिकठोर साधना सुमेरु पर भी भारत के इक्के-दुक्के नहीं, किन्तु अनन्त-अनन्त वीर-धीर-त्यागी वैरागी योहागण सफल-मिद्ध हुए और हो रहे हैं।
साधना के दो मार्ग जैनधर्म में साधना के दो मार्ग वताये गये हैं-"देश सर्वतोऽणु महतो"
-तत्वार्थसूत्र