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प्रथम खण्ड एक प्रेरक प्रसव | २७
एक प्रेरक प्रसंग
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जव दीक्षा की शुभसूचना देवगढ के कौन-कौन मे प्रसारित हुई, तव किसी ने हितकारीकल्याणकारी माना तो किसी ने उदास चित्त होकर अनिष्टकारी भी माना । क्योकि-सवके विचारविभिन्न तरह के होते हैं- "भिन्ना वाणी मुखे मुखे" अथवा "Many men many minds" अर्थात्जितने मुंह उतनी वातें होने लगी।
गिरती-गिरती यह सूचना एक स्वपच (भगी) कुल तक भी जा पहुची । स्वपच गृहिणी मासपास वालो से दीक्षा सम्बन्धित प्रताप की खवर सुनकर हक्की-वक्की सी रह गई । तेज गति से पैर उठाती हुई वैरागी प्रताप के द्वार पर आई और विना किसी को चेताए वह गला फाड-फाड कर जोर-जोर से रोने लगी । द्वार पर होने वाले कोलाहल को सुनकर उसने वाहर आकर देखा कि-अपने गृह द्वार की सफाई करने वाली भगन मा अकारण रो रही है।
"मा । तुम क्यो रो रही हो ? क्या कही से अणुभ समाचार मिले हैं ?" सहजभाव से प्रताप ने पूछा।
स्वपच गृहिणी मधुर भाषा मे बोली-"अन्नदाता | कई पीढियो से हमारा सकल परिवार आपके घर की सेवा करता आया है । फलस्वरूप जन्म-मरण-परण के समय-समय पर वस्त्र-थाली-लोटे एव रुपये आदि का लाभ भी हमें खूब मिलता रहा है। परन्तु दुख है कि आज पडोसियो के मुह से मैंने सुना कि-अव आप सदा-सदा के लिए घर और गांव छोडकर ढूंढिया महाराज बनरिया हो । इसलिए बहुत वडा दुख है कि-अव- हमारा सारा घर ही उठ रहा है। अन्नदाता । दुख अव इस बात का है कि-वे वर्तन, रुपयें अब कहाँ से मिलेंगे ? किम घर से आयेंगे और कौन देगा? आप घर पर विराजते तो जन्म-मरण-परण (विवाह) सव काम-काज होते ही और हमारी आवक भी यो की त्यो कायम रहती।"
जब उस भगन मा की स्वार्थ भरी पुकार को सुनी व आखो के सामने देखी तो, तत्काल मेघावी प्रताप ने उसी की माग के अनुसार आशातीत ईनाम देकर विदा दी और कहा कि- 'अव तो वहुत मा " "अरे । गरीव निवाज | आप को सुदृष्टि चाहिये।" ऐसा कहकर मुस्कराती हुई वह भगन मा अपने घर की ओर चलती बनी।
अव वीर प्रताप चिन्तन की दुनिया में सोचने लगा कि-अहो ससार कितना स्वार्थी तत्त्वो से परिपूर्ण है । एक मामूली महिला भी अपने तुच्छ अधिकार को छोडना पसन्द नही करती है । अन्तत लेकर ही गई तो सब रोणा-धोना वन्द हो गया और तन-मन में कितनी खुशहाली छा गई । अतएव ज्ञानियो ने ठीक ही कहा है कि सभी अपने-अपने मतलव को ही रोते रहते हैं। न कि परमार्थ को, इसलिए शुभ कार्य के लिए अब मुझे विलम्ब नही करना चाहिए ।