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वैराग्य का उद्भव
प्रथम संकल्प के चरण परमाता-पिता के निधन से बालक प्रताप के मृदु मन को भारी चोट पहुची। अव वालक के दिल-दिमाग मे विचारो की तरगें एक के बाद एक उभरने लगी -
रे मन | क्या अव तात-मात-भ्रात पुन अपने को नहीं मिलेंगे ? क्या मेरी सार-सभाल भी यहां आकर नही करेंगे? वे गये तो कहाँ गये ? न कोई समाचार-सूचना और न कोई पता-पत्र ही । लोग कहते हैं कि-"मर गये। मर गये" दरअसल मरना क्या-वला है ? क्या वीमारी हैं ? मरना किस चिडिया का नाम है ? देहधारी प्राणी क्यो मरते हैं ? नही मरने की भी तो कोई दवाई-औपधि किंवा जडी बूटी सजीवनी देने वाले डाक्टर-वैद्य इस वसु घरा पर होंगे तो सही न? जिसको खा-पीकर अमर तथा मृत्यु जय बना जा सकें।
द्वितीय सकल्प के चरण पररे मन | क्या तुझे भी इसी तरह मरना पडेगा? काल-कवलित एव बीमारी-बुढापे का शिकार भी बनना पडेगा ? "ना ना भीपण-भयकर ऐसा दुख-दर्द सहन नही होगा।" मन सहसा काप उठा । अतएव वेहतर तो यह है कि-पानी के पहले ही पाल वाध लेना बुद्धिमत्ता एव भावी जीवन के लिए श्रेयस्कर होगा । अन्यथा वही दशा अपनी होगी जो इधर तो आग लगी और उधर कूप खुदवाना यह कहावत चरितार्थ होगी । अत समय रहते ही चेत जाना चाहिए । और मृत्यु जय जडी-बूटी की तलाश भी कर लेना चाहिए। ताकि-अपना भावी जीवन सदा-सदा के लिए आनन्द का नन्दन वन-सदन वन जाएं।
मृत्यु जय को तलाश के पथ परइस प्रकार मन-महोदधि मे उठी-उभरी वास्तविक कल्पनाओ-लहरो के समाधान के लिए विरागी प्रताप ने मोचा कि जिस प्रकार डाक्टर एव वकील वनने का इच्छुक अन्य अनुभवी डाक्टर वकील के पास रहकर प्रशिक्षण-मार्गदर्शन एव विचार विमर्श ग्रहण करता है। उसी प्रकार लोभीलालची वैद्य-एव गुरु के माया जालो मे न भटकता हुआ, मुझे भी अव सत् प्रयत्न करना ही चाहिए। ताकि मेरी आत्मा महान्, विद्वान एव भगवान वन सके और महान् मनोरथ भी पूर्ण हो जाय । एतदर्थ सत्तगनि रामवाण सोपधि है। ऐमा विचार कर धर्मस्थानक मे विराजित मुनियो के सम्पर्क मे आने लगा।