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गुरु नन्द का साक्षात्कार
जिसे जो लगता है प्यारा, उसी फा उससे नाता है ।
खुशबू फूल को लेने, भौरा फोसो से आता है ।। दादा गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म० भी अपने गुरु भ्राता मुनि प्रवर श्री जवाहरलालजी म. एव कविरत्न श्री हीरालाल जी म० की तरह सर्व गुण सम्पन्न थे । ज्ञानाभ्यास एव सत-सघ सेवा में आप भी अग्रसर ही थे । तत्त्वज्ञान, आगम, जैन दर्शन, न्याय, पिंगल, छन्द, कोप-काव्य-व्याकरण, सस्कृतप्राकृत, पड्दर्शन आदि विपयो मे निष्णात थे। आप की प्रतिभा बहुमुखी एव कुशाग्र बुद्धि विलक्षण थी। शास्त्रार्थ करने मे एव प्रतिवादी को अपनी बात मनवाने मे आप अत्यन्त पटु थे । वस्तुत जैन आगमो मे जहां-तहां आए हुए जितने भी चर्चास्पद स्थल हैं, उन सभी को आपने हस्तगत कर लिए थे। इसी वलबूते पर आप विवाद-कर्ताओ के बीच खडे रहकर जैनधर्म की ध्वजा फहराने मे तथा सद्धर्म की सागोपाग पुष्टि करने मे अद्वितीय माने जाते थे।
जहाँ-कही मालवा एव मेवाड प्रान्त मे स्थानकवासी परम्परा की पुष्टि का प्रसग आता तो स्व० पूज्य प्रवर श्री उदय सागरजी म० व चतुर्थ पट्टाधीश आपकी ही नियुक्ति पसन्द करते थे। गुरुआशीर्वाद से आप भी यत्र-तत्र विजय वरमाला लेकर ही लौटते थे। इसलिए जनता आपको "वादीमानमर्दक" के पद से सम्बोधित करती थी।
एकदा गुरुप्रवर अपने शिप्य परिवार के साथ सम्यक्त्व आलोक से जगतीतल को आलोकित करते हुए अर्थात्-पूर्व लिखित घटना क्रम के ठीक चार वर्ष के पश्चात् देवगढ नगर मे पधारे।
___जन समूह के साथ-साथ जिज्ञासु प्रताप भी गुरुदेव की पवित्र सेवा म आ पहुंचा । प्रसगानुसार स्वर्गीय श्री गाधीजी से सम्बन्धित वातें चल पडी । तव समीपस्थ किसी भाई ने कहा कि-"गुरुमहाराज | स्व० श्रीमान गाधी का सुपुत्र प्रताप अकेला वचा है, जो हुजूर की सेवा मे ही हाजिर है ।" वालक प्रताप को देखते ही पडितवर्य श्री कस्तूरचन्दजी म, एव प० रत्न श्री सुखलाल जी म० वोल उठे "अरे ! तुम सेठ मोडीराम जी गाधी के सुपुत्र हो। तुम्हारा तो सकल परिवार ही दीक्षित होने वाला था। किन्तु काल-कुटिल ने ऐसा नहीं होने दिया। अस्तु, वे तो अब ससार मे नही रहे, परन्तु तुम तो मौजूद हो | तुम चाहो तो अपने पिता-भ्राताओ की शुभ कामना-भावना को पूरी कर सकते हो और धर्म के नाम को उज्ज्वल भी।"
वैराग्य रग से ओत-प्रोत वीर प्रताप का हृदय पहले से हिलोरें मार ही रहा था। अव सुगुरु के दर्शन तथा सुयोग पाकर और अधिक श्रद्धा भक्ति से भर उठा । गुरुदेव के स्नेह मय मधुर वचनो का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा। तत्क्षण श्रद्धापूर्वक अपना मस्तक गुरुपाद-पकज मे झुका दिया। गुरु का महान् हृदय भी सुशिष्य प्राप्ति की आशा मे प्रसन्नता से भर उठा। "शुभस्य शीघ्रम्" अथवा "समयं गोयम मा पमायए" के अनुसार सामायिक-प्रतिक्रमण आदि धार्मिक अभ्यास-अध्ययन भी प्रारम्भ कर दिया गया।।