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शैशवकाल और मातृवियोग
बाला फिटा य मदा य वला पन्ना य हायणी । पवच्चा पभारा य, मुम्मुही सायणी तहा ।।
-भगवान महावीर जिज्ञासुवृन्द । मानव-शरीर को दस अवस्थाएँ है—प्रथम वालावस्था, दूसरी क्रीडावस्था, तीसरी मन्दावस्था, चौथी वलावस्था, पाचवी प्रज्ञावस्था, छठी हायनी (हीन) अवस्था, मातवी प्रवचावस्था, आठवी प्राग्भारा, नौवी मुखमुखी एव दशवी अवस्था शायनी मानी गई है।
वचपन का आनन्द - इस प्रकार प्रथम वाल्यावस्था वह अवस्था मानी गई है, जिसमे न कमाने की, न लेन-देन एव न उद्योग-धधे की चिन्ता सताती है। आकुलता-व्याकुलता एव शोक का बोझ भी सिर पर नही रहता है। जीवन में सुख शान्ति आनन्द-उल्लास हर्प का पूर्णत साम्राज्य छाया रहता है। छलप्रपच माया आदि छद्मो का नितान्त अभाव सा रहता है । ऐसा भी माना जाता है कि-योगी का जीवन और वालक का ज्योतिर्मय जीवन एक समान माना गया है। मानव जिस समय योगावस्था मे प्रवेश करता है, उस समय शुद्ध निर्मल-निष्पाप बालक सा प्रतीत होता है । उसमे कृत्रिमता एव वनावटीपन नहीं रहता है । सव दृष्टि से सरल, शुद्ध एव प्रशस्त पवित्र जीवन रहता है। ऐसे महान् सुलझे हुए जीवन पर आत्मोत्थान की सुभव्य-सुदृढ इमारत खडी की जाती है।
वसत और पत्तसरइस प्रकार वालक प्रताप का जीवन पुष्प भी गुण-सौरभ से महक रहा था । अति लघुअवस्था मे अनेक गुणो को अपना लेना, समझदारी भरी बातें करना, अन्य को समझाना एव हिताहित का कुछ अशो मे भान हो जाना, सचमुच ही महानता की निशानी थी। इसलिए कहा है-"होनहार विरवान के होत चीकने पात"
हा तो वीर प्रताप के जीवन-उद्यान मे वाल्यकाल की हरी-भरी सुहावनो मन्द-मन्द मधु ऋतु मुस्वराई अवश्य । किन्तु कुछ ही वर्षों मे दुख वियोग-रोग का पतझर आ खडा हुमा। अर्थात् छ वर्ष की अति लघुवय मे ही ममता मय माता दाखा के स्नेह स्रोत से वचित होना पड़ा।
छुटपन मे माता का लाड-प्यार एव स्नेह मय वरद हस्त उठ जाना कितना कष्टप्रद है। यह तो मुक्त भोगी ही जान सकता एव बता सकता है। एक दार्शनिक की भाषा मे परिस्थितिया मानव जीवन के निर्माण में सहायक बनती है और भावी जीवन की परिस्थितियां भी वैसी ही बन पडती है। अतएव मातृ-वियोग का प्रसग ही वीर प्रताप के हृदयागन मे वैराग्य के अकुर पैदा करने मे निमित्त भूत वना । मानो ऐमा लगता था कि-प्रवल ममता पाश से छुटकारा दिलाने के लिए, स्वय विधि (भाग्य) ने ही वालक के लिए वैराग्य की प्रशस्त पृष्ठ भूमि तैयार की हो।