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१३ )
वाले परिमाण के कारण हैं । कुछ नियमित संख्या के अवयवों से निर्मित होनेवाले अवयवियों में अवयवों के एक प्रकार की संख्या और एक परिमाणों से अवयवी में विभिन्न प्रकार के परिमाणों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अतः यही मानना पड़ेगा कि विभिन्न प्रकार के परिमाणवाले अवयविओं की उत्पत्ति एक प्रकार की संख्यावाले और एक समान परिमाणवाले अवयवों से नहीं हो सकती, अतः देवदत्तादि एक ही नाम से प्रत्यभिज्ञात होने पर भी विभिन्न परिमाण के देवदत्तादि के शरीर विभिन्न संख्यक और विभिन्न परिमाणवाले अवयवों से ही उत्पन्न होते हैं । विभिन्न संख्यक अवयवों से I निर्मित अवयवी कभी एक नहीं हो सकते । अतः देवदत्तादि के मोटे और पतले शरीर रूप अवयवी भी विभिन्न ही हैं, क्योंकि विभिन्न परिमाणों के होने के कारण विभिन्न संख्यकों और विभिन्न परिमाण के अवयवों से उत्पन्न हैं । उत्पत्ति और विनाश का या शरीर के छोटे बड़े होने का या मोटा और दुबला होने का यह क्रम इतना सूक्ष्म है कि उसे परख नहीं सकते । यह तो प्रत्यक्ष है कि एक पाँच साल का लड़का जिस ऊँचाई पर की वस्तु को छू नहीं सकता था वही दश वर्ष का होने पर उसे आसानी से 'छू सकता है । किन्तु उसकी ऊँचाई में यह वृद्धि कब हुई ? यह कोई देख नहीं सकता । ऐसा तो होता नहीं कि एक रात पहिले जिस उँचाई की वस्तु को छूने में पाँच अङ्गल की कमी थी, वह प्रातः होते ही छूट जाती है और वह उस वस्तु को छू लेता है । तस्मात् यह वृद्धि और नाश प्रतिक्षण होता है अतः प्रत्येक वृद्धि को या प्रत्येक विनाश को देखा नहीं जा सकता, क्योंकि क्षण अत्यन्त सूक्ष्म है ।
अतः 'अहं गौरः' इत्यादि प्रतीतियों के वाचक 'अहम्' शब्द से शरीर का बोध लाक्षणिक ही है । शरीर आत्मशब्द का मुख्यार्थ नहीं है । उसका मुख्यार्थ कोई अतिरिक्त द्रव्य ही है, जिसके सम्बन्ध के कारण आत्मा शब्द से शरीर का भी गौणव्यवहार होता है । तस्मात् शरीर आत्मा नहीं है ।
किसी सम्प्रदाय का कहना है कि जिस प्रकार 'अहं गौर:' इस प्रकार की प्रतीति होती है, उसी प्रकार 'अहं काणः' 'अहं बधिरः' इत्यादि प्रतीतियाँ भी होती हैं, काणत्व बधिरत्वादि चक्षुरादि इन्द्रियों के ही धर्म हैं, अतः उन प्रतीतियों में अहम् शब्द से चक्षुरादि इन्द्रियों का ही भान उचित है । अतः इन्द्रियाँ ही आत्मा हैं । सभी ज्ञानों में इन्द्रियाँ किसी न किसी प्रकार अपेक्षित हैं ही। उन्हें आत्मा मान लेने में केवल इतना अधिक होता है कि उन्हें ज्ञानों का निमित्तकारण न मानकर समवायिकारण मानते हैं । अतः इन्द्रियाँ हो आत्मा हैं । वे ही अपने अपने से उत्पन्न ज्ञानों के आश्रय हैं । अतः इन्द्रियों से अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई अतिरिक्त द्रव्य नहीं है ।
आत्मा को इन्द्रियों से भिन्न अतिरिक्त पदार्थ माननेवाले सिद्धान्तियों का कहना है कि शरीर को आत्मा मानने में जो स्मरणानुपपत्ति प्रभृति दोष दिखला आये हैं, वे सभी अनित्य इन्द्रियों को आत्मा मान लेने के पक्ष में भी हैं । उसकी रीति यह है कि आँखों के रहते जिसने जिन वस्तुओं को देखा है, अन्धा हो जाने पर भी उस व्यक्ति को उन वस्तुओं का स्मरण होता है । किन्तु इन्द्रियों को आत्मा मान लेने के पक्ष में यह स्मरण
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