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ये पञ्च पाप इनको बस शीघ्र छोड़ो,
धारो महाव्रत सभी मन को मरोड़ो। औ ! राग का तुम समादर ना करो रे !
देवाधिदेव 'जिन' को उर में धरो रे! ।। ४३ ।।
रे ! 'वीर' ने जड़मयी तज के क्षमा को,
है धार ली तदुपरान्त महा क्षमा को । जो चाहते जगत में बनना सुखी हैं,
धारें इसे, परम मुक्ति -वधू-सखी है ।। ४४।।
आस्था घनिष्ठ निज में जिनकी रही है,
विज्ञान से चपलता मन की रुकी है। होता चरित्र उनका वर मोक्ष-दाता,
ऐसा रहस्य यह छन्द हमें बताता ।।४५।।
आत्मा जिसे न रुचता वह तो मुधा है,
मिथ्यात्व से रम रहा पर में वृथा है । ज्ञानी निजीय घर में रहते सदा ये,
वन्दूं, उन्हें, द्रुत मिले निज संपदायें ।। ४६ ।।
कैसे रहे अनल दाहकता बिना वो,
तो अग्नि से पृथक दाहकता कहां हो ? आकाश के बिन कहीं रह तो सकेगा,
पै ज्ञान आतम बिना न कहीं रहेगा ।।४७।।
जो मात्र शुद्धनय से न हि शोभता है,
। पै वीतरागमय भाव सुधारता है । लक्ष्मी उसे वरण है करती खुशी से, ..
सागार को निरखती तक ना इसी से ।।४८।।
'' हैं पूर्व में मुनि सभी बनते अमानी, ..
- पश्चात जिनेश बनते, यह 'वीर' वाणी । तू भी अभी इसलिये तज मान को रे,
शुद्धात्म को निरख, ले सुख की हिलोरें ।।४९।।