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संसार में विनय के बिन तू चलेगा,
आनन्द भो अमित औ मित क्यों मिलेगा । योगी सुधी तक सदा इसका सहारा,
लेते अतः नमन हो इसको हमारा ।। १५।।
विद्वेष जो विनय से करते कराते,
निर्भ्रान्त वे नहिं भवोदधि तैर पाते । जाना उन्हें भव-भवान्तर क्यों न होगा,
ना मोक्ष का विभव संभव भव्य होगा ।। १६ ।।
कामाग्नि से जल रहा त्रयलोक सारा,
देखे जहाँ दुख भरा कुछ ना सहारा । ऐसे जिनेश कहते, जग के विधाता,
जो काम मान मद त्याग बने प्रमाता ।। १७ । ।
पूजा गया मुनिगणों यति योगियों से,
त्यों शील, नीलमणि ज्यों जगभोगियों से । सत् शील में सतत लीन अतः रहूँ मैं,
लो ! मोक्ष को निकट ही फलतः लखूं मैं ।। १८ ।।
गङ्गाम्बु को न हिम को शशि को न चाहूँ,
चाहूँ न चन्दन कभी मन में न लाऊँ । जो शीलझील मन की गरमी मिटाती,
डूबूँ वहाँ सहज शीतलता सुहाती ।। १९।।
मैं भूत भावि सब साम्प्रत पाप छोडूं,
चारित्र संग झट चञ्चल चित्त जोडूं । सौभाग्य मान जिसको मुनि साधु त्यागी,
हैं पूजते नमन भी करते विरागी ।। २० ॥
'जैसे सती जगत में गजचाल हो तो,
शोभे उषा पवन मन्द सुगन्ध हो तो । संसार शोभित रहे गतिचार होवें,
• सर्वज्ञ सिद्ध सब वे गतिचार खोवें ।
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