Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 356
________________ फिर क्या पूछो वही-वही फिर चलती रहती चिर से है। परम्परा है बीज वृक्ष से, वृक्ष बीज से फिर से है।। . किन्तु बीज को दग्ध करो तो वृक्ष कहां फिर जीयेगा। जीती, इन्द्रिय यदि तुमने तो शान्ति सुधा चिर पीयेगा।। ६४।। जीत इन्द्रियां विजितमना है यम संयम ले मंयत है। मात्म-ध्यान में सहज रूप से वही लीन हो संगत है।। यथा-शीघ्र ही घुल मिल जाती सुनो दूध में शक्कर है। जीतो इन्द्रिय इसीलिए तुम विषयों का तो चक्कर है।।६५।। ज्ञान मात्र से मात्र चरित से मात्र भावना के बल से। सिद्धि नहीं हो, होती शुचितम ध्यान साधना के बल से।। समुचित है यह बिना तपाये नहीं दूध से घृत मिलता। अनल योग पा, तप-तप कर ही कनक खरा भास्वत खिलता।। ६६ ।। विशेष औ सामान्य गुणों से सहित वस्तु है शाश्वत है। प्रभु के दोनों उपयोगों में एक साथ जो भास्वत है।। फैला-फैला कर पंखों को पंछी नभ में उड़ता ओ।। किन्तु कभी ना दिखा किसी को एक पंख से उड़ता हो।।६७।। हित हो अथवा अहित रहा हो निज आतम में निहित रहे। सन्तों के ये वचन रहे हैं तुम सब को भी विदित रहे।। पर का इस में हाथ रहा हो निमित्त भर वह कहलाता। उपादान में फल लगता है सुनो ! गीत तुम यह गाता।।६८।। ज्ञेय-मूल्य भी ज्ञान बिना नहिं दुख ही सुख का मूल्य रहा। बन्ध बिना नहिं मुक्ति रुचेगी निर्धन धन का मूल्य रहा।। कौन पूछता दाता को बिन पात्र,पथिक बिन पन्था को। गौण हुये बिन मुख्य कौन हो लोचन-मालिक, अन्धा हो।। ६९।। अज्ञ रहा तब मूल्य विज्ञ का बदा अन्यथा वृथा कथा। शत्रु मित्र की याद दिलाता क्षुधा बिना है अन्न वृथा।। उचित रहा यह जहां निशा हो तथा दिवस भी रहे जहां। मूल्य निशाकर तथा दिवाकर का होता बुध कहें यहां ।।७।। १३३)

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