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जिस की चर्या 'गो' सम होती पाप कार्य में मौन रहा। बिन पूछे निर्भीक बोलता धर्म कार्य हो गौण रहा।। तत्त्वेषण में डूब रहा है लोकेषण से भीत रहा। दुर्जन द्वारा दिये गये दुख उपसर्गों को जीत रहा।।९२।।
शरणागत के शरण प्रदाता निरीह तरुसम उपकारी। नियमित उद्यम में रत रहता रवि शशि सम है तमहारी ।। सिंह वृत्ति का धारक भी है संग रहित है हवा समा। योगों में तो अचल मेरु है धरा बना है धार क्षमा।।९।।
अहि सम जिसका खुद का घर नहिं सत्य बोलता इक रसना। जिसके तन मन सर्व-इन्द्रियां स्ववश कूर्म मम, परवश ना।। देख चुका गन्तव्य सापत को किन्तु नदी सम भाग रहा। योगी वह जयवन्त रहे नित भजूं उसे मन जाग रहा।।९४।। .
विज्ञों का उपयोग चपल यदि निज को निहार नहिं पाते।
अज्ञों की क्या बात रही फिर पर में विहार कर जाते।। 'सलिल स्वच्छ हो सरवर का पर मुख उसमें नहिं दिख सकता। जहां पवन से लहर उठ रहीं वहां नेत्र क्या ? टिक सकता ?।।९५।।
जननी सुत को ताड़ित करती नेत्र सजल हो सुत रोता। माँ सहलाती, भूल तुरत सब हँसमुख मुत प्रत्युत होता ।। नेत्र रहे प्रतिशोध-भाव बिन अपलक बालक जैसा हो। महाभाग्य वह यथाजात यति व्रत का पालक वैसा हो।।९६।।
शब्दों के तो पात्र रहे हैं जग के सारे शास्त्र महा। मल का कोई पात्र यहां है तेरा जड़मय गात्र रहा।। सुख का पावन पात्र रहा तो शुचितम चेतन मात्र रहा। ऐसा मन में चिंतन कर लो अपात्र सब सर्वत्र रहा।।७।।
जो भी देखी जाती हमसे वही प्रकृति स्त्री कहलाती। अमूर्त जो है पुरुष रहा वह ऐसी कविता यह गाती।। मूर्त रूप से देखा जाता स्त्री पुरुषों का अभिनय जो। केवल यह व्यवहार रहा है भीतर निश्चय अतिशय हो।। ९ ।।