Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 355
________________ 'मूढ़ सुनो तुम तन धारण ही दुस्सह दुख का मूल रहा। सब दुःखों में दुःख वही है मन को जो प्रतिकूल रहा।। उसमें भी है महा भयानक दुःख पराभव का होता। आत्मबोध हो फिर क्या दुख है अभाव भव-भव क्य होता।। ५७।। बाहर से तो छोड़ दिया है धन मणि कंचन सकल अहा। किन्तु उन्हीं में जाकर जिसका मन रमने को मचल रहा।। शिव सुख उसको मिल नहिं सकता उसे तत्त्व क्या?खबर नहीं। सर्प कांचली भले छोड़ता किन्तु छोड़ता जहर नहीं।। ५८।। सभी सुखों में आत्मिक सुख ही उत्तम है श्रुति गाती है। . . सब गतियों में पंचम गति ही उत्तम मानी जाती है।। सब आभाओं में मणि-आभा मानव मन को भाती है। सब ज्ञानों में अक्षय केवल-ज्ञान ज्योति सुख लाती है।।५९।। जैसी मति होती है वैसी नियम रूप से गति होती। जैसी गति होती है वैसी सुनो नियम से मनि होती।। (अभाव मति का जब होता है गति का अभाव तब होता । अभाव मति गति का होने से प्रकटित स्वभाव अब होता।।६।। जल बिन कब हो जल में उठती लहरें जल के आश्रित हो। गगन चूंमता भवन बना है स्तम्भों पर आधारित हो।। उत्तमतम गुण ज्ञानादिक भी विनयाश्रित हैं शोभित हैं। बिना विनय के वृथा सभी गुण इस विध मुनि संबोधित हैं।। ६१।। शक्ति-शालिनी सेना की भी राजा से ही शोभा है। मस्तक पर वर मुकुट शोभता राजा की भी शोभा है।। नहीं शोभता बिना विनय के गुणगण का जो निलय बना। इसीलिए बस सुधी जनों से पूजा जाता विनय घना।। ६२।। ज्यों ही इन्द्रिय सचेत होती विषयों का बस ग्रहण हुआ। कषाय जगती क्रोधादिक फिर विधि-बन्धन का वरण हुआ।। विधि बन्धन से गति मिलती है गति से काया मिलती है। काया में फिर नई इन्द्रियां नई खिड़कियां खुलती हैं।। ६३ ।। An)

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