Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 353
________________ लुब्ध हुआ है विषयों में अति मुग्ध कुधी वृषरीत रहे। ज्ञानी की तुम बात पूछते जग से वह विपरीत रहे।। बालक को जब मोदक मिलता खाता खाता नृत्य करे। किन्तु वृद्ध वह यद्यपि खाता नृत्य करे ना तथ्य अरे।।४३।। नग्न दिगम्बर तन से होना केवल यह पर्याप्त नहीं। किन्तु विमलता साथ रहे वह मन की, कहते आप्त सही।। ऐसा यदि ना, श्वान सिंह पशु नग्न सदा हैं सुखित बनें। किन्तु कहां? वे सुखित बने हैं रहें निरन्तर दुखित घने।।४४।। परम शान्त निज आतम में यदि जा बसने की चाह रही। भक्ति-भाव से भजो सरलता तजो कुटिलता 'राह यही'।। कुटिल-चाल से चलता है अहि बाहर में यह उचित रहा! विल में प्रवेश जब करता है 'सरल चाल' हो, विदित रहा।।४५।। हो सकता है जलधि तृप्त वह शत-शत सरिता नदियन से। तथा जहर भी सुधा सरस हो अनल तृप्त हो इन्धन से।। पंगू भी वह दैवयोग से गिरि चढ़ सकता संभव है। किन्तु तृप्ति लोभी की धन से कभी न होना सम्भव है।। ४६ ।। रहा मनोबल मुक्ति-मार्ग में साधकतम है मुरुतग है। तथा वचन बल तरतमता से आवश्यक हैं कुछ कम है।। तन बल तो बस रहा सहायक निश्चय के वह साथ सही। किन्तु सुनो ! तुम मुक्तिमार्ग में धनबल का कुछ हाथ नहीं। १४७।। पापार्जन तन मन वच से हो पाप तनक ही तन से हो। विदित रहे यह सब को, तनसे पाप अधिक वाचन से हो।। कहूँ कहां तक मन की स्थिति मैं पाप मेरु सम मन से हो। करें नियंत्रण मन को हम सब धर्म कार्य बस। मन से हो।।४८।। दान धर्म में रत होने से शोभा पाता वह भोगी। ध्यान कर्म में रत होने से शोभा पाता यह योगी।। पात्र बना है निरीह बनना गुण माना है जिनवर ने। नरक द्वार है इच्छा-ज्वाला हमें कहा है ऋषिवर ने।।४९।।

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