Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

View full book text
Previous | Next

Page 352
________________ मोह भाव से दूर हुआ है, साधु परिग्रह त्याग रहा। . . समता से भरपूर हुआ है उसे कष्ट नहिं जाग रहा।। चिकनाहट से रहित हुआ है पात पका है पलित हुआ। सहज रूप से बाधा बिन ही पादप से वह पतित हुआ ।।३६ ।। विषयी का बस विषयराग ही भवदुख का वह कारण है। भविकजनों का धरम राग ही शिवकारण दुखवारण है।। सन्ध्या में भी लाली होती प्रभात में भी लाली है। एक सुलाती एक जगाती कितने अन्तर वाली है।।३७।।. वैसा वानर चंचल होता मदिरा पीता पामर है। बिच्छू ने फिर उसको काटा और हुआ वह पागल है।। उससे भी मानव मन की अति चंचलता मानी जाती। धन्य रहा वह विजितमना जो जिनवर की वाणी गाती।।३८ पंचेन्द्रिय के विषयों में जो प्रतीति सुख की होती है। मोह-भाव की परिणति है वह स्वरीति सुख की खोती है।। जल का मन्थन करने वाला पाता नहिं नवनीत कभी। किन्तु फेनका दर्शन पाता मति होती विपरीत तभी।। ३९।। वीतरागमय जिनवर का वह जिसके मन में स्मरण हुआ। ज्ञात रहे यह बात, उसी के पाप बाप का मरण हुआ।। सावन में सरवर सरिता का मलिन रहे वह सलिल भले। • अगस्त का जब उदय हुआ बस! विमल बने जल, कलिल टले।।४।। किसी पुरुष के दोष कभी भी हो बिना जो किये गये। अनायास ही सुधीजनों से सुने गये हो लखे गये।। तन मन वच से कहें न पर को जग में वे जयवन्त रहे। सदा देया के निलय बने जो शान्तमना हैं सन्त रहे।।४१।। महा भयानक दुस्सह दुःखमय-भवसागर के पार गहें। स्वभाव तज कर विभाव-भव में जिनवर नहिं अवतार गहें।। तेल निकलता है तिल से, घृत तथा दूध से वह निकले। किन्तु तेल तिल में नहिं बदले,नहीं दूध में घृत बदले।।४२।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370