Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 351
________________ प्राप्रामा का आश्रय पाकर सन्त वचन भी पाप बने । पुण्यात्मा का आश्रय पाकर पुण्य बने भवताप हने ।। नभ से गिरती जल की धारा इक्षु दण्ड में मधुर सुधा । कटुक नीम में अहि में विष हो अब तो मन तू सुधर मुधा । । २९।। अहंकार की परिणति से मैं पूर्ण रूप से विरत रहूं । तथा काय की ममता तजकर समता में नित निरत रहूं ।। यही नियति है बार- बार फिर तन का धारण नहीं बने । कारण मिटता कार्य मिटेगा प्राणं विदारण नहीं बने ।। ३० ।। प्रयास पूरा भले करो तुम पाप पाप से नहिं मिटता । पाप पुण्य से पल में मिटता पुरुष पूत हो सुख मिलता ।। मल से लथपथ हुआ वस्त्र हो मल से कब वह धुल सकता ? विमल सलिल से धोलो पल में मूल रूप से धुल सकता ।। ३१ । सब सारों का सार रहा है चेतन निधि को त्याग जिया । रहा अचेतन दुख का केतन जड़ वैभव में राग किया । । कौन रहा वह बुद्धिमान हो सारभूत नवनीत तजे । क्षारभूत रसरीत छाछ में भूल कभी क्या ? प्रीत सजे ।। ३२ । धन के अर्जन संवर्धन औ संरक्षण में लीन रहा । बार-बार मर दुखी हुआ पर आत्मिक सुख से हीन रहा । । मोह मल्ल की महा शक्ति है उसे जगत कब जान रहा । पूंछ, उलझती झाड़ी में है चमरी खोती जान अहा । । ३३ । । जीवन को जीवित रख सकती प्रजापाल के बिना प्रजा । " प्रजापाल पर कहां रहे ओ ! कहां सुखी हो बिना प्रजा ।। निश्चित ही पर-आश्रित है वह स्वयं भला क्या सिन्धु रहा ? किन्तु बिन्दु निज आश्रित है यह सिन्धु हेतु है बिन्दु रहा । । ३४।। भोगी बन कर भोग भोगना भव बन्धन का हेतु रहा। योगी बन कर योग साधना भव-सागर का सेतु रहा । । जैसा तुम बोओगे वैसा बीज फलेगा अहो ! सखे । निम्ब वृक्ष पर सरस आम्रफल कभी लगे क्या ? कहो सखे! ।। ३५।। (328)

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