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मुनियों को अध्यात्म शास्त्र वह प्राय: परमामृत प्याला। विषयरसिक हैं गृही जनों को विषम-विषमतम है हाला।। जीवन-दाता प्राण-प्रदाता नीर मीन को माना है। औरों को तो मृत्यु रहा है यही योग्यता बाना है।।१५।।
तन से रीते शिव जिन जीते उनमें संभव हो भव ना। स्वभावदर्शन विभावघर्षण तन-धारक में संभव ना।।
कहां दूध से प्रकाश मिलता तथा दूध में गन्ध कहां? - प्रकाश देता तथा महकता घृत से जल का बन्ध कहां?।।१६।।
भोग और उपभोगों से तो विरत रहे हो मानी हो। योग और उपयोगों में जो निरत रहे परमाणी हो।। नासा पर फिर दृष्टि रही क्यों ? ऐसा यदि भगवान नहीं! . मान बिना यह परिणति ना हो मेरा यह अनुमान सही।।१७।।
जीव पुण्य का उदय प्राप्तकर नर जीवन को पाकर भी। .. सुखद चरित ना दुखद असंयम प्रायः पाले पामर ही।। .... उदार उरनाले पर्वत पर मुड़कर भी नहिं हँसती है। खारा सागर रहा कृपण है सरिता जिस में फँसती है।।१८।।
दृष्टि रहित हो घोर घोरतर तप तपता उस तापस में। । श्रीमन्तों में धीमन्तों में तथा असंयत मानस में।।
अनायास ही होता रहता मद जिससे बहु दोष पले। निशाकाल में निद्रा जैसी प्रायः आती होशटले।।१९।।..
लाल तिलक बिन ललना जनका ललाटतल ना ललित रहे। उद्यम के बिन तथा जगत में देश ख्यात ना दलित रहे।। परम शान्त रस बिना किसे वह भाती कवि की कविता है। सम दर्शन के बिना कभी ना भाती मुनि की मुनिता है।।२०।।
जीर्ण-शीर्ण तन कान्तिहीन है पर भव भी अब निकट रहा। मोही का पर विषयों पर ही झपट रहा मन निपट रहा।। बहुत पुराना इमली का वह रहा वृक्ष अतिवृद्ध रहा। किन्तु खटाई इमली की नहिं वृद्धा यह अविरुद्ध रहा।।२१।।
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