Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 347
________________ चिन्मय-धन के धनिक रहे हैं शिवसुख के जो जनक बने। विरागता के सदन जिन्हें हो नमन सदा यह कनक बने।। लिखी गई यह अल्प ज्ञान से नीतिशतक की रचना है। रोग शोक ना रहे धरा पर ध्येय पाप से बचना है।।१।। नया वस्त्र हो मूल्यवान हो मल से यदि वह समल रहा। प्रथम बार तो छू नहिं सकता जल को, जल हो विमल अहा।। उपदेशामृत सन्तों से सुन करता आना कानी है। शास्त्रों का व्यवसाय चल रहा जिसका, बुध जो मानी है।।२।। शिवसुखकारक भवदुखहारक मुनि का मुनिपन विमल घना। देहाश्रित कुल-जात पात से सुनो ! कभी ना समल बना।। यही समझ में सब को आता कृष्ण-वर्ण की गायें हों। किन्तु दूध क्या ? काला होता दूध धवल ही पायें ओ!।।३।। यद्यपि वय से वृद्ध हये हैं संयम से अति ऊब रहे। विषयरसिक हैं विरति विमुख हैं विषयों में अति डूब रहे।। उनकी संगति से शुचिचारित मुनियों का वह समल बने। वृद्ध-साथ हो युवा चले यदि युवा चरण भी विकल बने।।४।। ज्ञानवृद्ध औ तपोवृद्ध यदि पक्षपात से सहित तना। उभय लोक में सुख से वंचित निज पर का वह अहित बना।। सज्जन पीते पेय रहा है पावन पय का प्याला है। छोटी सी भी लवण-डली यदि गिरती, फिर क्या ? हाला है।।५।। पाप पंक में फसे हुये हैं, विषय-राग को सुख जाने। मोह पाश से कसे हुये हैं वीत-राग को दुख माने।। सत्य रहा यह, कर्म-योग से जिनको होता रोग यहां। पथ्य कहां वह रुचता उनको अपथ्य रुचता भोग महा।।६।। मानभूत के वशीभूत हो धनिक दान खुद करते हैं। मान तथा धन की आशा से ज्ञान-दान बुध करते हैं।। प्रायः ऐसा प्रभाव प्रचलित कलियुग का है विदित रहे। वीतराग-मय पूज्य धर्म से इसीलिए ये स्खलित रहे।।७।। .. (10)

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