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अविवाहित हो जीवन जीता व्यभिचारी भी बना हुआ । गृही विवाहित उससे वर है शुभ आचारी बना हुआ । । एक पाप को पल पल ढोता दुर्मति से दुर्गति होती । एक पाप को नियमित धोता धर्म कार्यरत मति होती । । ७१ । ।
कृपण सेठ से श्रेष्ठ रहा वह साधारण जीवन जीता । दयालु दाता पर के दुख का वैरी उद्यम - जल पीता । । प्रशस्त - दाता किन्तु नहीं जो अनीति - धन का दान करे। दान बिना भी मान्य रहा वह नीति निपुण गुणवान अरे ! ।। ७२ ।।
श्रद्धा की मम आंखों में प्रभु किसविध आ अवतार लिया । कणभर होकर मन यह मेरा गुरुतम तुमको धार लिया । । विराग हो तुम अमूर्त भी हो मूर्त रहा ग्रह अन्य रहा । धन्य रहे हो भगवन् तुम तो किन्तु भक्त भी धन्य रहा ।। ७३ ।।
महा विचक्षण योग्य शिष्य हो विनयी हो श्रमशील तना । योग, योग्य गुरु का पा गुरु हो विस्मय क्या समझील बना ।। शिल्पी की वह शिल्पकला है जड़ भी चेतन हो जाता । कठिन - कठिन पाषाण खण्ड भी विराग केतन हो जाता । । ७४ ।।
चमक दमक है जिनके चारों ओर विषय घे परे हुये । निज में रमते सदा भ्रमर से बुधजन भ्रम से परे हुये ।। किन्तु हिताहित नहीं जानते पर में रत जड़ मरते हैं। जैसे कफ में मक्खी फसती क्यों न विषय से डरते हैं ? ।। ७५ ।।
भाग्य खुला तो मुख खिलता है प्रायः जग यह मुदित दिखे। पाप उदय में आता है तब मुख मुंदित हो दुखित दिखे।। तपन ताप से नभ मण्डल औ धरती जब यह तप जाती । पली छाव में मृदुल लता जो मूर्च्छित होती अकुलाती ।। ७६ । ।
चरित - शरण में जब आता है शील-छांव में पलता है । ज्ञान स्वयं यह अविनश्वर शुचि पूर्ण- ज्ञान में ढलता है ।। उचित शाण पर उचित समय तक अनगढ़ हीरा जब चढ़ता । सुजनों के वह कण्ठहार हो मूल्य चरम तक सब बढ़ता ।। ७७ ।।
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