Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 249
________________ पदार्थो के रस के प्रति विरक्तिभाव से सहित होता है अर्थात् अनुकूल रस वाले पदार्थों के स्वाद में अनुरक्त नहीं होता है उसके द्वारा अरतिनाम का परिषह सुख से जीता जाता है ऐसा कर्तव्य का निर्देश करने वाली जिनवाणी दयापूर्वक कहती है।।३२।। विकृत-रूप-शवादिकन्दर्शनात्, पितृवने च गजाहित गर्जनात्। अरतिभाव- मुपैति न कंचन, समितभावरतोऽञ्चतु कं च न! ।। विकृतेति - हे न! हे जिन! 'नकारौ जिनपूज्ययोः' इति विश्वलोचनः। पितृवने श्मशाने, विकृतरूपशवादिकग्दर्शनात् विकृत रूपं येषां ते विकृतरूपाः ते च ते शवादिकाश्च मृतकदेहाश्च तेषां दर्शनादवलोकनात् । गजाहितगर्जनाच्च गजानां हस्तिनाम् यत् अहितगर्जनं भयावहशब्दस्तस्मात्। य: कंचन कमपि अरतिभावं अप्रीतिपरिणामं नोपैति न प्राप्नोति। समितभावरतः मध्यस्थपरिणामलीनः स मुनिः कं सुखं शुद्धात्मानं च अञ्चतु गच्छतु प्राप्नोत्विति यावत्।।३३।। अर्थ - हे जिन! जो मुनि श्मशान में विकृत रूप - सड़े गले मृतक शरीर के देखने और हाथियों की अहितकारी-भयावह गर्जना से कुछ भी अरतिभाव-अप्रीति भाव को प्राप्त नहीं होता है; साम्यभाव में लीन रहने वाला वह मुनि सुख को प्राप्त हो।।३३।। [३४] विरमति श्रुततो ह्यघकारतः, वचसि ते रमते त्वविकारतः। स्मृतिपथं नयतीति न भोगकान, विगतभावितकांश्च पिभोऽघकान् ।। विरमतीति - हे विभो! हे भगवन्! यो मुनिः हि निश्चयेन अघकारतः पापकारकात् श्रुततः शास्त्रात् विरमति विरतो भवति। तु किन्तु अविकारत्ने विकाररहितत्वात् ते तव वचसि रमते रमणं करोति । इति हेतोः स अघकान् पापरूपान् विगलभावितकान् अतीतानागतकान् भोगकान् पञ्चेन्द्रियविषयान् स्मृतिपथंस्मरणमार्ग न नयति नो प्रापयति। कुशास्त्राद्विरतः सुशास्त्रे च सुरतः साधुः अतीतानागतवर्तमानान् भोगान् नाकाङ्क्षीत्यर्थः ।। ३४।। ___ अर्थ - हे विभो! जो मुनि पापकारक शास्त्र से विरत रहता है तथा विकाररहित आपके वचन में सुशास्त्र में रमण करता है वह पापकारक अतीत-अनागत भोगों का स्मरण नहीं करता ||३४|| (२३२)

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