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तृण कंटक पद में वह पीड़ा सतत दे रहे दुखकर हैं, गति में अंतर तभी आ रहा रुक-रुक चलते मुनिवर हैं। उस दुस्सह वेदन को सहते-सहते रहते शान्त सदा, : उसी भाँति में सहूँ परीषह शक्ति मिले, शिव शान्ति सुधा।।७१।।
खुले खिले हों डाल-डाल पर फूल यथा वे हँसते हैं जिनकी पराग पीते अलि-दल चुम्बन लेते लसते हैं। . विषय, विषमतर शूल तृणों से आहत हैं पर तत्पर हैं, निज कार्यों में बिना विफल हो कहते हमसे तन पर है।।७२।।
कठिन-कठिनतर शयनासन में कंटक पथ पर विचरण में, सुख ही सुख अवलोकित होता मुनियों के आचरणन में। भीतर से बाहर आने को शम सुख सागर मचल रहा, दुखित जगत को सुखित बनाने यतन चल रहा सकल रहा।।७३ ।।
कभी-कभी आकुलता यदि हो मन में तन में वेदन हो, प्रतिफल हो, 'फल कर्मचेतना' चेतन में पर खेद न हो। बिना वेदना प्रथम दशा में कर्मों का वह क्षरण नहीं, . समयसार का गीत रहा यह औ सब बाधक शरण नहीं।।७४।।
निज भावों से भावित भाता भासुर गुणगण शाला है, परिमल पावन पदार्थ प्यारा अनुभवतां रस प्याला है। फिर यह तन तो स्वभाव से ही मल है मल से प्यार वृथा, मुनियों से जो वंदित है सुन! शुद्ध-वस्तु की सार कथा।। ७५।।
स्वभाव से ही रहा घृणास्पद रहा अचेतन यह तन है, पल से मल से भरा हुआ है क्यों फिर इसमें चेतन है? तन से निशिदिन झरती रहती अशुचि, सुनो जिनश्रुति गाती, . देह राग से श्रमणों की उस विराग छवि ही क्षति पाती।।७६।।
तपन-ताप से तप्त हुआ तन स्वेद कणों से रंजित हो, रज कण आकर चिपके फलतः स्नान बिना मल.संचित हो। मल परिषह तब साधु सह रहा सुधा पान वे सतत करें, नीरस तरु सम तन है जिनका हम सब का सब दुरित हरें।।
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