Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 339
________________ दृष्टि-विचारशक्ति को प्राप्त मनुष्य श्रीफल-नारियल (पक्ष में लक्ष्मी का फल) खाने में समर्थ हैं उसी प्रकार सफेद हंस और समताभाव से युक्त आत्मावाले अनाशआशारहित साधु, मुक्ताफलभोजी होते हैं । हंस मोती चुगते हैं और साधु मुक्तिरूपी फल का अनुभव करते हैं ।।८२।। [८३] प्रत्येकभावे निजपर्यया वै, प्रतिक्षणं ये प्रलयं प्रयान्ति । मुहुर्मुहुर्या तरलेव भूत्वा, तरङ्गमाला क्षणिका तडागे ।। प्रत्येकेति - प्रत्येकभावे प्रत्येकपदार्थे ये निजपर्ययाः स्वकीयपर्ययाः सन्ति ते वै निश्चयेन प्रलयं विनाशं प्रयन्ति गच्छन्ति । तदेवोदाहरति - तडागे कासारे या तरङ्गमाला वीचिसन्ततिरस्ति सा मुहुर्मुहुः वारं वारं तरलेव चञ्चलेव भूत्वा, क्षणिका क्षणे भवा क्षणिका नश्वरी भवति ।।८३।। ___अर्थ - प्रत्येक पदार्थ में जो अपनी पर्यायें हैं वे प्रतिक्षण विलय को प्राप्त होती हैं। जैसे तालाब में जो तरङ्ग की संतति है वह बार बार चञ्चल सी होकर विनष्ट हो जाती हैं।।८३।। [८४] काले न कालेन न काचन श्रीः, सा चात्मतत्त्वं तु ततोऽस्तु तत्र। समुद्यमोऽतोऽस्तु सदैव सन्द्रिः, कर्तव्य एवात्महिताय तत्त्वे ।। ... काल इति - काचन कापि श्रीः सुखादिलक्ष्मी न कालेऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपे भवति । न कालेन प्रातमध्याह्नादिरूपेण भवति। सा सुखादिलक्ष्मीः आत्मतत्त्वं आत्मस्वरूपं अस्ति ततस्तस्मात् तत्रात्मनि अस्तु भवतु। यो यस्य धर्मः स तत्रैव प्राप्यते नान्यत्रेति भावः । अतः सद्भिः साधुभिः आत्महिताय आत्मने हितमात्महितं तस्मै स्वश्रेयसे तत्त्वे स्वतत्त्वे एव सदैव सर्वदा समुद्यमः समुद्योग: प्रयासः कर्तव्यो विधातव्यः अस्तु ।। ८४।। ___ अर्थ - कोई भी सुखादिकलक्ष्मी न किसी काल में और न किसी काल के द्वारा होती है क्योंकि वह आत्मतत्त्व है अतः आत्मा में ही हो सकती है। अतः सत्पुरुषों को आत्महित के लिये आत्म तत्त्व में ही सदा उद्योग करना चाहिये ।।८४।। . .. (३२२)- .

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