Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 343
________________ दुःखोपसर्गेषु विविक्तधर्मैः ।। परोपकारी तरुवन्निरीहस्तथोद्यमी यो रविचन्द्रशीलः । सिंह तवृत्या निलवद् विसंगो, योगेन मेरुः क्षमया धरास्ति ।। सत्यैकजिह्वोऽप्यहिवद् विवासः, सुसंवृतात्मा भुवि कूर्मवद्वा । सदृष्टलक्ष्योऽपि नदप्रवाहो, मयांच्यते संजयतात् स योगी ।। (विशेषकम् ) यः I गौरिति परोपकारीति सत्यैकेति चर्यया गौः धेनुः प्राप्तसंतोषीत्यर्थः । पापततौ दुरितसमूहे मौनो पापकार्यसमर्थनरहितः । निजधर्महानौ स्वधर्महानिप्रसंगे अपृष्टोऽपि अमौनो मौनरहितः प्रतिकारकर्तेत्यर्थः । लोकैषणतः लोकख्यातेः भीतोऽपि त्रस्तोSपि विविक्तधर्मैः अधार्मिकजनैः दुःखोपसर्गेषु कष्टप्रदोपसर्गेषु कृतेष्वपि अभीतो भयरहितोऽस्ति । परोपकारी सन्नपि तरुवक्षवत् निरीहः प्रत्युपकारानभिलाषी । तथा समुच्चये । उद्यमी पुरुषार्थी रविचन्द्रशीलः सूर्येन्द्र इव निर्भीकोऽस्ति । अनिलवत्पवन इव विसंगोऽपरिग्रहः इत्यर्थः । योगेन ध्यानेन मेरुः मन्दरवन्निश्चलः । क्षमया तितिक्षया धरास्ति सर्वं सहास्ति पृथिवीवत्सहिष्णुरिति भावः । सत्यैकजिह्वा सत्यमेवैका जिह्वा यस्य तथाभूतः सत्यवादी । अहिवत् पन्नग इव विवासोऽनियतनिवास स्थानः अस्ति । भुवि भूमौ कूर्मवत् कच्छप इव सुसंस्कृतात्मा स्वसंवृतेन्द्रियः सदृष्टलक्ष्योऽपि दृष्टेन निश्चितेन लक्ष्येण सहितोपि नदप्रवाहो नदस्येव प्रवाहो यस्य तथाभूतः लक्ष्यप्राप्ति विना पुरुषार्थान्न विरमतीति भावः । एवंभूतो यो योगी अस्ति स मया अंच्यते पूज्यते । स संजयात् सम्यक्प्रकारेण जयशीलो भवतु ।। ९२ - ९४ । । अर्थ - ज़ो चर्या से गाय है, पाप समूह में मौन है, निजधर्म की हानि में बिना पूछे भी प्रतिकार करने वाला है, लौकिकख्याति से भयभीत होने पर भी अधार्मिक मनुष्यों के द्वारा कृत दुःखदायक उपसर्गों में अभीत है, परोपकारी होकर भी वृक्ष के समान प्रत्युपकार की इच्छा से रहित है, सूर्यचन्द्रमा के समान उद्यमी है, वृत्ति से सिंह के समान निर्भय है, वायु निष्परिग्रही है, ध्यान में मेरु के समान निश्चल है, क्षमा में पृथिवी के समान सहिष्णु है । सत्यैकजिह्व है - सत्यवादी है, सर्प के समान निश्चित निवास स्थान से रहित है, पृथिवी पर कछुवे के समान अपने आपको संवृत करने वाला है और निश्चित लक्ष्य से सहित हो लक्ष्य की प्राप्ति के लिये नदी के प्रवाह के समान गतिशील है, वह साधु मेरे द्वारा पूजा जाता है, वह सदा जयवन्त रहे । । ९२-९४ ।। - (३२६ ) -

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