Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 341
________________ न रतो न लीनोऽस्तु तथापि काको वायसो जगता लोकेन नो आदतो नादरं प्रापितः। अत्र विषयें रूढिरेव कारणमिति मन्ये जानामि। अन्यहेतुरितरकारणं न हस्ति नियमेन नास्ति।। ८७।।। अर्थ - यद्यपि कौआ अपने जाति के साथ वात्सल्य रूप गुण को धारण करता और दिन में रतिक्रिया में तत्पर नहीं रहता तथापि वह जगत् के द्वारा आदर को प्राप्त नहीं होता। इसमें रूढि ही कारण है ऐसा मानता हूं। अन्य कारण नहीं है।। ८७ ।। [८८ आग्रादिवन्नो फलभारनप्रो गन्धान्वितं यस्य न मंजुपुष्पम्। सेव्योऽत्र मिष्टेन रसेन सर्वै रुद्दण्ड इक्षोर्नन दण्डकोsपि।। , आमेति - इक्षोः पौण्डकस्य दण्डकोऽपि दण्ड एव दण्डकोऽपि यद्यपि आम्रादिवत् रसालादितरुरिव फलभारनम्रः फलानां भारेण नम्रो नास्ति। यस्य मंजुगुप्पं सुन्दरनुसुमं गन्धान्वितं सुगन्धसहितं नास्ति। प्रकृत्या च उद्दण्डो दण्डरूपो अविनीतो वास्ति तथापि मिष्टेन रसेन कारणेन अत्र जाति सवैराबालवृद्धैः सेव्यः सेवनीयो वर्तते।। ८॥ अर्थ -- ईख का दण्ड यद्यपि आदि वृक्षों के समान फलों के भार से नम्र नहीं होता और न जिसका सुन्दरकूल सुगन्ध से सहित है प्रकृति से उद्दण्ड - दण्ड रूप में खड़ा है (पक्ष में अविनीत) तथापि मिष्ट रस के कारण जगत् में सब के द्वारा सेवनीय है!।.८८ . [८९] गुणीभवन्तीह योर्जराशं तपसि. सर्वाणि च तान्विकानि। अयत्नमुक्तं वृषमिष्टपन्नं मन्दाग्निना वाऽकृतभोजनेन। गुणीति - इह जगति जरायां वृद्धावस्थायां यतेः साधोः तान्विकानि तनो शरीरे भवानि तान्दिकानि शरीराश्रितानि सर्वाणि तपांसि तपश्चरणानि गुणीभवन्ति अप्रधानीभवन्ति। वा समुच्चये मन्दाग्निना जठराग्नेः मान्द्यतया अकृतभोजनेन न कृतं भोजनं येन तेन साधुना वृष गरिष्ठम् इष्टं वांछितं अन्नं भोजनं अयत्नं प्रयत्नमन्तरेण मुक्तं त्यक्तं भवति।। ८९॥ अर्थ - इस जगत् में वृद्धावस्था के समय साधु के शारीरिक तप गौण हो जाते हैं और मन्दाग्नि के कारण भोजन न कर सकने के कारण गरिष्ठ इष्ट भोजन बिना प्रयत्न के ही छूट जाता है।। ८९।।

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