Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 333
________________ जातसातस्य, बन्धे सति पारतन्त्र्यजनकबन्धे सति मुक्तेः स्वातन्त्र्यस्य, दरिद्रे निर्धने सति धनिनो धनवतः, पात्रे दानाहे सति दातुर्दानकर्तुः, पथिकेऽध्वगे सति पथोऽपि मार्गस्यापि, गौणेऽप्रधाने सति मुख्यस्य विवक्षितस्य प्रधानस्येति भावः, अन्धे दृष्टुमशक्ते सति सुदृशोऽपि सुलोचनस्यापि, अज्ञे ज्ञानरहिते सति विज्ञस्य विशिष्ट ज्ञानवतः, अहिते अकल्याणकारिणि सति हितस्य कल्याणकारकस्य, क्षुधाभिवृद्धौ क्षुधाया अभिवृद्धिस्तस्यां बुभुक्षा वृद्धौ सत्यां भोजनस्य भोज्यपदार्थस्य; यथा मूल्यं सार्थक्य मस्ति तथा दिनरात्रियुक्ते दिवसरजनीसहिते अत्र देशे दिवाकरेन्द्रोः दिवाकरश्चेन्दुश्चेति दिवाकरेन्दू वृद्धिः तयोः सूर्याचन्द्रमसोः मूल्यं सार्थक्यमस्ति, इति शृणु समाकर्णय त्वंमिति शेषः। मान इति-मान के रहते हुये मेय - पदार्थ का, दुःख के रहते हुए सुख का, बन्ध के रहते हुए मुक्ति का, दरिद्र के रहते हुए धनी का, पात्र के रहते हुए दाता का, पथिक के रहते हुए पथ का, गौण-अप्रधान के रहते हुये मुख्य का, अन्धे के रहते हुए सुलोचन का, अज्ञानी के रहते हुए ज्ञानी का, अहित के रहते हुए हित का, क्षुधा के रहते हुए भोजन का और दिन रात से युक्त इस देश में सूर्य चन्द्रमा का मूल्य है। सुनो!।।६९ - ७०।। [७१] विवाहितः संश्च वरो गृही सोऽ-, विवाहिताद्धा व्यभिचारिणोऽपि । पापस्य हानिश्च वृषे मतिः स्यात्, तथेतराद् यत् शृणु पापमेव ।। विवाहित इति - स प्रसिद्धो गृही गृहस्थो विवाहितः उ दृढभार्योऽपि सन् व्यभिचारिणो व्यभिचारशीलात् विवाहितात् उदूढभार्यात् वरः श्रेष्ठोऽस्ति । तयोस्तथात्वे पापस्य दुरितस्य हानिरपचयः वृषे धर्मे मतिर्बुद्धिः स्यात्। यत्र पापस्य हानिर्धर्मे च मतिः स्यात्तस्य पुण्यत्वं भवति। तथेतराच्च पापस्य वृद्धेः धर्मे चाप्रवृत्तेश्च पापमेव स्यात्। इति तत्त्वं शृणु हे भव्य! ।।७१।। अर्थ - व्यभिचारी अविवाहित मनुष्य की अपेक्षा विवाहित - स्वदारसंतोषी गृहस्थ श्रेष्ठ है। उसकी श्रेष्ठता का कारण पाप की हानि और धर्म में रुचि है। इससे विपरीत कारणों-पाप की वृद्धि और धर्म में अरुचि से पाप ही होता है। यह तत्त्व की बात सुन ||७१।। (३१६)

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