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एक साथ उन्नीस परीषह मुनि जीवन में हो सकते, समता से यदि सहो साधु हो विधिमल पल में धो सकते । सन्त साधुओं तीर्थकरों ने सहे परीषह सिद्ध हुए,
सहूँ निरन्तर उन्नत तप हो समझँ निज गुण शुद्ध हुए ।। ९९ ।।
पुण्य- पाक है सुरपद संपद सुख की मन में आस नहीं, आतम का नित अवलोकन हो दीर्घ काल से प्यास रही। तन से, मन से और वचन से तजूँ अविद्या हाला है, 'ज्ञान - सिन्धु'को मथकर पीऊं समरस 'विद्या, प्याला है । । १०० ।।
[इति शुभं भूयात् ] गुरु स्मृति
कुन्द-कुन्द को नित नमूँ, हृदय कुन्द खिल जाय परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय । । तरणि ज्ञान सागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश । करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीष । ।
= स्थान एवं समय परिचय: कुण्डलगिरि वरक्षेत्र है, हर्षाता मन फूल । हिरण नदी के कूल पे दर्शाता भव - कूल । । १
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याम व्योम गति गन्ध की, फागुन पूणम ज्योत । पूर्ण हुआ यह ग्रन्थ है, निजानन्द स्रोत । । २॥
-भूल क्षम्य हो: लेखक, कवि मैं हूँ नहीं, मुझमें कुछ नहिं ज्ञान । त्रुटियां होवें यदि यहाँ, शोध पढ़ें धीमान ।। २ ।।
[इति शुभं भूयात्]
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