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मुनि पर यदि उपसर्ग कष्ट हो हृदय शून्य उन मानव से, धर्म-भाव से रहित, सहित हैं वैर-भाव से दानव से। किन्तु कभी वे निशि में उठकर गमन करें अन्यत्र नहीं, अहो अचल दृद हृदय उन्हीं का दर्शन वह सर्वत्र नहीं।। ५०।।
सप्तभयों से रहित हुआ है जितनिद्रक है श्रमण बना, शय्या परिषह वही जीतता दमनपना पा शमनपना। निद्राविजयी बनना यदि है इच्छित भोजन त्याग करो, इन्द्रियविजयी बनो प्रथम तुम रसतज निज में राग करो।।५१।।
यथासमय जो शयन परीषह तन रति तजकर सहता है, निद्रा को ही निद्रा आवे मुनि मन जागृत रहता है। समुचित है यह प्रमाद तज रवि उदयाचल पर उग आता, पता नहीं कब कहाँ भागकर उडुदल गुप लुप छुप जाता।।५२।।
असभ्य पापी निर्दय जन वे करते हों उपहास कभी, किन्तुं न होता मुनि के मन की उज्ज्वलता का नाश कभी। तुष्ट न होते समता-धारक सुधीजनों के बन्दन से, रुष्ट न होते शिष्ट साधुजन कुधीजनों के निन्दन से।। ५३।।
क्रोध जनक हैं कठोर, कर्कश, कर्ण कटुक कुछ वचन मिले, निहार वेला में सुनने को अपने पथ पर श्रमण चले। सुनते भी.पर बधिर हुए-से आनाकानी कर जाते, सहते हैं आक्रोश परीषह अबल, 'सबल होकर' भाते।। ५४।।
इन्द्रियगण से रहित रहा हूँ मल से रस से रहित रहा, रहा इसी से पृथक् वचन से चेतन बल से सहित रहा। निन्दन से फिर हानि नहीं है विचार करता इस विध है, प्रहार करता जडविधि पे मुनि निहारता निज बहुविध है।। ५५।।
सही मार्ग से भटक चुके हैं चलते-चलते त्रस्त हुए, भील, लुटेरों, मतिमन्दों से घिरे हुए दुःखग्रस्त हुए। उनका न प्रतिकार तथापि करते यति जयवन्त रहे, समता के हैं धनी-गुणी हैं पापों से भयवन्त रहे।। ५६।।
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