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विशाल विस्फारित मंजुलतम चंचल लोचन वाली हो, कामदेव के मार्दव मानस को भी लोभन वाली हो। मुख पर ले मुस्कान मन्दतम गजसम गमनाशीला हो, उस प्रमदा के वश मुनि ना हो अद्भुत चिन्मय लीला हो।।३६।।
सदा, मुक्त, उन्मुक्त विचरती मत्त स्वैरिणी मोहित है, तभी कहाती प्रमदा जग में बुधजन से अनुमोदित है। वन में, उपवन में, कानन में, स्मित वदना कुछ बोल रही, निर्विकार यति बने रहे वे उनकी दृग अनमोल रही।।३७।।
लाल कमल की आभा सी तन वाली हैं सुर वनिताएँ, नील कमल सम विलसित जिनके लोचन हैं सुख-सुविधाएँ। किन्तु स्वला भी विषय वासना जगा न सकती मुनि मन में, सुखदा, समता सती, छबीली क्योंकि निवसती है उनमें।। ३८।।
शीलवती है, रूपवती है, दुर्लभतम है वरण किया, समता रमणी से निशिदिन जो श्रमण बना है रमण किया। फिर किस विध वह नश्वर को जो भवदा! दुःखदा वनिता है, कभी भूलकर क्या चाहेगा? पूछ रही यह कविता है।। ३९।।
कठिन कार्य है खरतर तपना करने उन्नत तपगुण को, पूर्ण मिटाने भव के कारण चंचल मन के अवगुण को। दया वधू को मात्र साथ ले वाहन बिन मुनि पथ चलते, आगम को ही आँख बनाये निर्मद जिनके विधि हिलते।।४।।
सभी तरह के पाद त्राण तज नग्न पाद से ही चलते चलते-चलते थक जाते पर निज पद में तत्पर रहते। कंकर, कंटक चुभते-चुभते, लहुलुहान पद लोहित हो, किन्तु यही आश्चर्य रहा है, मुनि का मन ना लोहित हो।।४१।।
कोमल-कोमल लाल-लालतर यगल पादतल कमल बने. अविरल, अविकल चलते-चलते सने रुधिर में तरल बने। मन में ला सुकुमालंकथा को अशुचि काय में मत रचना, मार मार कर महा बनो तुम यह कहती रसमय रचना।।४२।।
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