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महाप्रतापी, भू-नभ तापी अभिशापी रवि बना रहा, वन हारे, तरु सारे-खारे पत्र फूल के बिना अहा! किन्तु पराजित नहीं मुनीश्वर जित-इन्द्रिय हो राजित हैं, हृदय-कमल पर उन्हें बिठाऊँ त्रिभुवन से आराधित हैं।।२२।।
तन से, मन से और वचन से उष्ण-परीषह सहते हैं, निरीह तन से हो निज ध्याते बहाव में ना बहते हैं। परम तत्त्व का बोध नियम से पाते यति जयशील रहे, उनकी यशगाथा गाने में निशिदिन यह मन लीन रहे।।२३।।
विषयों को तो त्याग-पत्र दे व्रतधर शिवपथगामी हैं, मत्कुण मच्छर काट रहे अहि, दया-धर्म के स्वामी हैं। कभी किसी प्रतिकूल दशा में मुनिमानस नहिं कलुषित हो, शुचितम मानस सरवर-सा है सदा निराकुल विलसित हो।।२४।।
चराचरों से मैत्री रखते कभी किसी से वैर नहीं, निलय दया के बने हुए हैं नियमित चलते स्वैर नहीं। तन से, मन से और वचन से करें किसी को व्यथित नहीं, सुबुध जनों से पूजित होते मान-गान से सहित सही।।२५।।
मत्कुण आदिक रुधिर पी रहे पी लेने दो जीने दो, तव शुभ स्तुति की सुधा चाव से मुझे पेट भर पीने दो। . तीन लोक के पूज्य पितामह ! इससे मुझको व्यथा नहीं, यथार्थ चेतन पदार्थ मैं हूँ तन से 'पर' मम कथा यही।।२६।।
दंश मसक ये कीट पतंगे पल भर भी तो सुखित नहीं, पाप पाक से पतित पले हैं क्षुधा, तृषा से दुखित यही। कब तो इनका भाग्य खुले कब निशा टले, कब उषा मिले, सन्त सदा यों चिंतन करते दिशा मिले, निज दशा खिले।।२७।।
निरा. निरापद. निजपद दाता यही दिगम्बर पद साता, पाप-प्रदाता आपद-धाता शेष सभी पद गुरु गाता। हुए दिगम्बर अम्बर तजकर यही सोच कर मुनिवर हैं, शिवपथ पर अविरल चलते हैं हे जिनवर ! तव अनुचर हैं।।२८।।
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